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रावणवध और राम की शक्तिपूजा– डाo उदय राज मिश्रा

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ayodhya samachar

अंबेडकर नगर। बात चाहे भारतीय वाङ्गमय की हो या विज्ञान की,यह एक प्रतिष्ठापित सत्य है कि यह संसार ऊर्जाओं का रूपांतरण मात्र है।यही वैज्ञानिकों के लिए बल,पृथ्वी के लिए गुरुत्वाकर्षण,साधकों के लिए आत्मा और पापाचारियों के लिए परशुराम का परशु है एवम सत्य तथा धर्म की स्थापना हेतु प्रभु श्रीराम की शक्तिपूजा है।इसप्रकार अभीप्सित और इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु आराधना का विशेष महत्त्व है।भारतीय सनातन संस्कृति और सभ्यता इस बात की साक्षी है कि अन्याय पर न्याय की जीत हेतु जबजब सदवृत्तियों का पारस्परिक मिलन और एकाकार हुआ है तबतब शक्तिसंचय होने से रावण रूपी राक्षस का वध हुआ है।
बहुधा लोगों में यह जिज्ञासा उत्तपन्न होती है कि शारदीय नवरात्र के दशवें दिन विजयदशमी अर्थात रावण वध का महोत्सव क्यों मनाया जाता है?आखिर नवरात्र और दशहरे में क्या गूढ़ सम्बंध है?अतएव दशहरे व नवरात्र में अन्योनाश्रित सम्बंध का सम्यक विवेचन व अनुशीलन समीचीन जान पड़ता है।
वस्तुतः महेश्वर कृत अध्यात्म रामायण,तुलसी कृत रामचरित मानस व महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण आदि ग्रंथों के विवेचन से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि प्रभु श्रीराम की लंका विजय आश्विन माह में हुई थी।इस निमित्त हुए भयंकर युद्ध के दौरान विश्रवासुत राक्षसराज दशानन का वध करने से पूर्व अभीष्ट सिद्धियों की प्राप्ति हेतु मर्यादापुरुषोत्तम ने आदिशक्ति के नौ स्वरूपों का विधिपूर्वक पूजन किया था।ग्रन्थों के अनुसार जब युद्ध सीधे प्रभु राम व दशानन के मध्य होने लगा तो सर्वशक्तिमान श्रीराम के प्रहारों से रावण तनिक भी विचलित नहीं हो रहा था।राम के सारे प्रयास व्यर्थ साबित हो रहे है।जिससे प्रभु को भी चिंतन,मनन व ध्यान हेतु विवश होना पड़ा,ताकि रावण के महाप्रतापी होने के इस रहस्य का पता लगाया जा सके।जिसे निम्न पंक्तियों द्वारा निम्नवत वर्णन करना ज्यादा समीचीन होगा-
रावण से था हो रहा,राघव का संग्राम।
तेजयुक्त दशशीश था,थके थके से राम।।
छोड़ते थे क्रुद्ध हो,प्रभु रावण पर बाण।
बाण तो तन छूते नहीं,क्यों हर लेंगें प्राण।।
इसप्रकार जब रणक्षेत्र में भगवान राम द्वारा छोड़े गए काल के भी काल और अभेद्य बाण रावण के शरीर को छूने में भी असफल होने लगे तो,रावण वध असम्भव सा प्रतीत हो गया।अपने बाणों को निष्फल देख श्रीराम को किसी अदृश्य शक्ति की उपस्थिति और उसके द्वारा रावण की रक्षा की जाने की आशंका हुई।अतएव-
रखकर धनुष तुणीर प्रभु, किये जरा जब ध्यान।
देखे सन्मुख युद्ध में,अद्भुत दृश्य महान।।
देख दृश्य प्रभु हो गये,थकित व्यथित अति क्लांत।
लौटे अपने शिविर में,संध्या के उपरांत।।
रणक्षेत्र में ध्यान रखने पर जो दृश्य प्रभु श्रीराम ने देखे,उसे देखकर उनकी शेष ऊर्जा भी क्षीण हो गयी,शरीर क्लांत और माथे पर थकान व चिंता की लकीरें पड़ गईं।अतः संध्या होने पर निराश व हताश हुए प्रभु श्रीराम अपने शिविर में लौटकर अपने सेनानायकों व वीरों को युद्ध क्षेत्र की स्थिति से अवगत कराते हुए कहे-
बाण मेरे ब्याल थे।
काल के भी काल थे।।
पर न अरितन छू सके।
कैसे प्राण हर सके।।
आह हनुमत क्या करूँ।
फिर भी कैसे चुप रहूँ।।
दृश्य जो देखा वहाँ।
और देखूंगा कहाँ।।
शत्रु रक्षा में अड़ी।
स्वयम नौ दुर्गा खड़ी।।
वो बचाती प्राण थीं।
निगल जाती बाण थीं।।
राम अब लाचार है।
हार निश्चित हार है।।
सेनापतियों से कहा, अब युद्ध है व्यर्थ।
आगे लड़ने के लिए,अब राघव असमर्थ।।
ऐसी विकट व सोचनीय स्थिति में नीति कहती है कि स्वजनों व शत्रु के शत्रु से मन्त्रणा अवश्य फलीभूत होती है।कदाचित यही श्रीराम के साथ भी हुआ।प्रभु की व्यथा को देख लंका के राजतिलक से विभूषित दशानन के अनुज विभीषण ने प्रभु राम से कहा-
शत्रु यूँ जो व्याप्त है।
देवी से वर प्राप्त है।।
आप भी तप कीजिये।
देवी से वर लीजिए।।
कहते हैं कि मन्त्रणा के बीच विभीषण की यह सलाह सुन प्रभु प्रमुदित हो गए।उन्होंने युद्ध के मैदान में ध्यान की अवस्था में साक्षात नौ दुर्गा के दर्शन किये थे।अतः उन्होंने अपने अनन्य भक्त हनुमान से कहा-
तप करूँगा नौ दिवस।
क्यों न देवि देगी दरस।।
हनुमान तुमपर भार है।
तप का ये आधार है।।
नील कमल चाहिए।
नील शतदल चाहिए।।
कहा जाता है कि आठ दिन समाप्त होने पर नौवें दिन आराधना करते हुए प्रभु श्रीराम जब देवी के चरणों में नीलकमल अर्पित करने हेतु हाथ बढ़ाये तो पुष्प गायब मिले।वस्तुतः देवी ने श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए स्वयम ही पुष्प ग्रहण कर लिया था।जिससे पुष्प अदृश्य हो गए थे।यही कारण है कि जब श्रीराम ने पुष्पार्चन करना चाहा तो पुष्प नहीं मिले।जिससे प्रभु को अपनी नौ दिनों की साधना निष्फल होती दिखने के साथ ही साथ रावण अपराजेय दिखने लगा।पुष्प गायब होने पर श्रीराम की स्थिति अत्यंत दयनीय होने लगी और वे संताप की अवस्था को प्राप्त हो कहने लगे-
हाय ये क्या हो गया।
नील शतदल खो गया।
व्यर्थ सारी साधना।
व्यर्थ सब आराधना।।
आह हनुमत क्या करूँ।
देवी चरणों में धरूँ।।
श्रीराम की यह अवस्था मनुष्यों के लिए एक प्रेरणा की अवस्था है कि जब कभी भी ऐसी परिस्थिति सम्मुख उत्तपन्न हो जाये तो क्या करना चाहिए।श्रीराम का चरित्र यह संदेश देता है कि दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्पशक्ति कभी भी साधक को दिग्भ्रमित नहीं करतीं।यही समय तो आत्ममंथन व धैर्य धारण करते हुए कुछ नवीन करके दिखाते हुए अभीप्सित को सिद्ध करने का समय होता है।पुष्प गायब होने पर विह्वल श्रीराम ने अपनी साधना की सफलता हेतु जो किया वह किसी भी साधक का श्रेष्ठतम संकल्प व अपने इष्ट के प्रति सच्चा समर्पण होने का उदाहरण है।श्रीराम जी को उनकी माताएं राजीवलोचन अर्थात जिनकी आंखें कमल की जैसी हों, कहकर पुकारती थीं।अतः श्रीराम ने साधना की सफलता हेतु पुष्प के अभाव में अपनी आंखों को उनकी जगह देवी के श्री चरणों मे समर्पित करने का संकल्प लिया।जिसका सुंदर वर्णन निम्नवत है-
हां, वे जननी के कथन।
कमलवत मेरे नयन।।
क्यों न दृग अर्पित करूँ।
देवी चरणों में धरूँ।।
बाण से करुणा अयन।
खींचना चाहे नयन।।
थरथरा अवनी गयी।
प्रकट जगजननी भई।।
जयतु राम जय जय राम,रण सिंधु तारा जाएगा।
राम के हाथों ही आज,रावण संहारा जाएगा।।
इसप्रकार नौ दुर्गा की नौ दिनों तक चली साधना के प्रतिफल में प्रभु श्रीराम को देवी का आशीर्वाद दशवें दिन मिला था।दशवें दिन ही रावण का वध हुआ।तबसे नवरात्र के तत्काल पश्चात दशवें दिन प्रतिवर्ष रावणवध करते हुए दशहरे के पर्व अन्याय पर न्याय की ,अधर्म पर धर्म की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।दशवें दिन को पौराणिक रूप से विजय दशमी कहा जाता है।
इसप्रकार शारदीय नवरात्र यह संदेश देता है कि जीवन मे कितनी भी विकट परिस्थितियां आएं,बाधाएं उत्तपन्न हों, हमें शक्तिसंचय करते हुए अन्याय का प्रतिकार करना चाहिए।
दुर्गासप्तशती में आदिशक्ति के इसी माहात्म्य का वर्णन करते हुए लिखा भी गया है-
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमो नमः।।

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