अंबेडकर नगर। उत्साहहीन न होते हुए भी विचाराधीन होना अनिश्चय व उहापोह कहलाता है। यह वह स्थिति होती है जब व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार उचित निर्णय लेने में समर्थ होते हुए भी असमर्थ सा हो जाता है।जिससे कभी कभी द्वार खड़ी सफलता भी विफलता में न केवल बदल जाती है अपितु व्यक्ति उचित मार्ग से हटते हुए अनुचित पथ का अनुसरण करने लगता है,जो आगे चलकर मानसिक समस्या बन जाती है और व्यक्ति आत्मावलोकन करने की बजाय ईश्वरीय विधानों का संचालक स्वयम बनने लगता है।
ऐसे व्यक्ति अदृश्य व परिकल्पित समस्याओं को भविष्य की वास्तविक समस्या मानने लगते हैं।यही कारण है कि ऐसे लोग धार्मिक विद्वेष और कटुता फैलाने के मामलों में ज्यादातर संलिप्त होने लगते हैं औरकि अदृश्य डर से बचने के लिए दूसरे धर्मानुयायियों के साथ बुरा बर्ताव करने के साथ-साथ उनकी हत्या तक करते हुए धार्मिक व जातीय दंगे की जड़ बनते हैं। मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के मुताबिक जब व्यक्ति उहापोह के दौर से गुजर रहा हो तथा उसका सानिध्य कट्टर जातीय व धार्मिक समूहों से हो तो वह आत्मावलोकन की क्षमता लुप्त होने के कारण समूहों द्वारा उनकी जातियों व धर्मों के प्रति अन्य जातीय व धार्मिक समूहों को लेकर बताई गई भड़काऊ बातों से अदृश्य भय और परिकल्पित डर का शिकार हो जाता है।
उसे यह यकीन हो जाता है कि अमुक धर्म के लोग आगे चलकर हमारे धर्म के खिलाफ होंगें या फिर उसके धर्म को नष्ट कर देंगें। इतना ही नहीं ऐसे व्यक्ति भगवान व खुदा को सर्वशक्तिमान मानते हुए भी ईश्वरीय विधानों और अनुचित कृत्यों हेतु खुदा द्वारा स्वयम दंडित किये जाने की सत्यता को भूल स्वयम दंडाधिकारी बनकर बलवा, दंगा,मारपीट और कत्ल तक करने या करवाने लगते हैं। जिससे पूरी कौम बदनाम तथा समाज बिखण्डन के दहाने पर खड़ा हो जाता है।अतः ऐसे भटके हुए लोगों को मानसिक रोगी मानते हुए सभ्य समाज को ही अपना आत्मावलोकन करना चाहिए अन्यथा स्थितियां नियंत्रण से बाहर भी होते देर नहीं लगातीं। वर्तमान दौर में उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान के आतंकवादी समूहों,वहाँ के शेख रसीद नामक एक मंत्री तथा भारत में बैठे हुए अनेक धार्मिक मौलानाओं व धार्मिक नेताओं को इसी मानसिक रोग से ग्रस्त देखा जा सकता है।
जो बात बात पर इस्लाम खतरे में या हिन्दू खतरे या या फिर दलित खतरे में याकि पिछड़े खतरे में का नारा दे दे सामाजिक विघटन के कुकृत्यों में संलिप्त देखे जाते हैं।ध्यातव्य है कि धर्म आस्था का विषय है न कि किसी के प्रति खतरा का।यह सम्भव है कि भिन्न-भिन्न धर्मानुयायियों की पूजा और उपासना पद्धतियों में अंतर हो किन्तु सबका अंतिम लक्ष्य तो एक ही होता है-परम प्रभु या खुदा की प्राप्ति,फिर विवाद क्यों?यह विचारणीय है।
वस्तुतः समस्या तब उत्तपन्न होती है जब धार्मिक कट्टर लोग अज्ञात भयवश किसी द्वारा उनके ईश की की गई निंदा के लिए उसे स्वयम दंड देने के लिए आगे आते हैं।जबकि इस्लाम में भी वर्णित है कि खुदा स्वयम ऐसे लोगों की खबर लेते हैं और सनातन हिन्दू धर्म सहित अन्य सभी में भी अनुचित कृत्यों हेतु प्रभु द्वारा दंडित किये जाने की मान्यता है।जब खुदा या भगवान स्वयम शक्तिशाली हैं तो उन्हें ही दंडित करने देना चाहिए न कि अपने को उनसे ऊपर उठकर दंडित करने का निश्चय करना चाहिए।कदाचित इस सत्य से भिज्ञ होते हुए भी कतिपय मौलाना समाज में विषवमन करने से पीछे नहीं रहते।अभी हाल में ही पाकिस्तान के इस्लामाबाद में एक प्राचीन हिन्दू मंदिर के पुनरुद्धार को लेकर वहां के मौलवियों द्वारा यह राग अलापना कि मंदिर बनने से इस्लाम खतरे में पड़ जायेगा,कमोवेश उनके मानसिक रोगी होने का ही प्रतीक है।समाज को ऐसे सभी धार्मिक व जातीय नेताओं का बहिष्कार करना चाहिए अन्यथा वे सबके सुख चैन हरने से बाज नहीं आएंगें।
धर्म की विवेचना करते हुए मनीषियों में लिखा है कि-धारयति य: स धर्म: अर्थात जो धारण करे वही धर्म है।धारणा के लिए जिज्ञासा,श्रवण,ग्रहण करना और ततपश्चात मनन करना आवश्यक होता है न कि किसी की बात सुनकर फौरन प्रतिक्रिया करना समीचीन होता है।जो अच्छाइयों को धारण करे वही धर्म है।अच्छा वह होता है जिसका आधार सत्य और फल लोकरंजन होता है।कदाचित जब हम अपने सत्य की अवधारणा से भ्रमित हो अदृश्य एवम परिकल्पित भय का शिकार होकर डर के वशीभूत होने लगते हैं तो हमें अपने धर्म,जाति व समुदाय के अस्तित्व का भय सताने लगता है तथा अन्य धर्मों के लोग शत्रुवत दिखते हैं।जिसके चलते धार्मिक कट्टरता बढ़ती है जिसकी परिणति दंगे फसाद के रूप में आयेदिन देखने को मिलती है।
धार्मिक कट्टरता के बाबत जानेमाने संस्कृत विद्वान व ब्रह्मलीन संत ज्ञानी जी महाराज के शिष्य आचार्य हरिहर नाथ का मत है कि जो भी व्यक्ति सत्संग का परित्याग कर कुसंग का शिकार होता है,वही धार्मिक कट्टर होता है।अतः सभी धर्मों के धर्माचार्यों की परिषद बनाकर संयुक्त रूप से इस विषय पर सम्यक विवेचन करते हुए जनमानस का आह्वाहन करना चाहिए कि वे कतिपय उलेमाओं व पुजारियों की उकसाने वाली बातों का शिकार न बनकर स्वयम धर्म का अनुशीलन करें।जिससे कोई भी समस्या भविष्य में नहीं आएगी वरना अमुक धर्म खतरे में हैं,के नारे के चलते इससे पार पाना सम्भव नहीं होगा।
इसप्रकार यह कहना ही प्रासङ्गिक है कि धार्मिक कट्टरता के शिकार और अपने धर्म को अन्य धर्मों से खतरा बताने वाले धर्मगुरु स्वयम सत्य के आधार से दूर मानसिक रोगग्रस्त होते हैं।जिन्हें आत्मावलोकन करना नहीं आता।