अम्बेडकर नगर। राजनीति राष्ट्रधर्म का पाठ पढ़ाने वाली पाठशाला औरकि संस्कृति तदनुसार उत्तम नैतिक चरित्र के नागरिकों के निर्माण का केंद्र होती है।जिससे आगे चलकर स्वस्थ समृद्ध और श्रेष्ठ राष्ट्र की संकल्पना सफलीभूत होती है।
साम,दाम,दंड,भेद जैसे सिद्धांत चतुष्टय को अंगीकृत करते हुए जनकल्याण और लोकोपकारी योजनाओं को बनाने वाली राजनीति जब सियासत का रूप धारण करती हुई अपने फ़र्ज़ और दायित्वों को दरकिनार कर केवल और केवल सत्ता प्राप्ति या फिर सत्ता सत्तासुख तक ही सिमटने लगे तो समझना चाहिए कि राष्ट्र पराभव की ओर बढ़ रहा है।जिसके जिम्मेदार न केवल सियासतदां अपितु उनको अपना बहुमूल्य मत प्रदानकर राजसत्ता की चाभी सौंपने वाले मतदाता भी होते हैं।
विश्व इतिहास में चाहे अधिनायकवाद हो याकि जनतंत्र या फिर साम्यवाद की अवधारणाएं हों, सबके सब येनकेन शासन की भिन्न भिन्न प्रणाली होने के बावजूद सत्तासुख के उपागम ही हैं।अलबत्ता लोकतंत्र इन सबमें सबसे उत्तम व्यवस्था अवश्य होता है।जिसमें कहने के लिए तो प्रत्यक्ष मतदान द्वारा प्रतिनिधियों का चुनाव होता है किंतु कालांतर में निगरानी और जवाबदेही पर सत्ता की ही पकड़ होने से दूषित व्यवस्था का खामियाजा भी उसी जनता को भुगतना पड़ता है,जोकि प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है।
उदाहरण के तौर पर स्वतंत्र भारत में जहाँ डॉ राधाकृष्णन,डॉ राजेन्द्र प्रसाद,लाल बहादुर शास्त्री, मोरार जी देसाई,चौधरी चरण सिंह,अटल बिहारी बाजपेई, स्वयम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम,डॉ शंकर दयाल शर्मा,कमलापति त्रिपाठी,जार्ज फर्नांडीज आदि जैसे दिग्गज और ईमानदार ऐसे नेता हुए हैं जिनके पास उच्च पदों पर रहने के बावजूद न तो अपनी कार थी और न अपना मकान।किन्तु आज भी जनता के दिलों में ये राज करते हैं।वहीं प्रख्यात समाजवादी डॉ राम मनोहर लोहिया के अनुयायी होकर भी हजारों करोड़ों में खेलते हुए समाजवादी पार्टी के उत्तराधिकारी व राजद के लालू प्रसाद यादव सहित उनका कुनबा,दलितों शोषितों की मसीहा कहलाने वाली हजारों करोड़ों की मालकिन मायावती,दिवंगत जयललिता आदि ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने राजनीति की आड़ में लोककल्याण का घूंट जनता को पिलाते हुए अपने अपने महासागर भरे हैं।दिलचस्प बात तो यह है कि इनलोगों के उत्तराधिकारियों द्वारा भी आज भी सियासत के नामपर तिजारत का कार्य बखूबी जारी है।इस प्रकार कहना अनुचित नहीं होगा कि सत्तर के दशक के बाद के ज्यादातर राजनेताओं को अपने फ़र्ज़ और दायित्वों का बोध नहीं रहा।ये बात और है कि अटल जी व कुछ अन्य उनमें शामिल नहीं हैं।
वस्तुतः नेताओं के फर्ज और उनकी आमदनी के बीच उनके स्वार्थ और लोलुपता बाधा बनकर उभरते हैं।विधायक व सांसद निधियों में 40 से 50 प्रतिशत तक कमीशन,शराब की दुकानों के टेंडर,बालू घाटों पर नियंत्रण,सड़क व निर्माण इकाइयों से जमकर उगाही आदि कृत्य ही आज के जनप्रतिनिधियों के मुख्य कार्य बन गए हैं।ये बात और है कि सारे असामाजिक कृत्य ये राजनैतिक दलों की टोपी पहनकर सफेद खादी के भीतर करते हैं।इन नेताओं की गिरी मानसिकता ही कहा जा सकता है कि देश के लाखों कर्मचारियों की पुरानी पेंशन जिस संसद व विधायिका में बैठकर खाये वहीं अपने लिए जारी रखे।यही इनका लोकतंत्र और यही इनकी असली पहचान है।
दरअसल राजनेताओं के निक्कमेपन के लिए मुख्यतः तो आममतदाता ही जिम्मेदार है ।जो जाति, धर्म की आड़ में शराब,पैसा,मांस और अन्य प्रलोभनों के फेर में ईमानदार व स्वच्छ छवि के प्रत्याशियों को वोट न करके धनपतियों,जातिवादियों,मवालियों,गुंडों और भ्रष्टाचारियों को माननीय बना देता है।लिहाजा “बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय” वाली कहावत तो चरितार्थ होगी ही ।
राजनीति के गिरते स्तर का आंकलन इस प्रकार से सहज की किया जा सकता है कि हमारे कतिपय नेतागण ध्रुवीकरण के चक्कर में धर्म व जाति विशेष के लोगों को अपनी ओर करने हेतु जिन्ना तक कि बड़ाई से परहेज नहीं करते,आतंकी अफजल गुरु,कसाव व इशरत जहां जैसे देशद्रोही लोगों का भी पक्ष लेने से बाज नहीं आते।किसानों को भड़काकर उनका भला करने के बजाय अपना वोटबैंक मजबूत करने में जुटते हैं।दिनोंदिन मतिभ्रम होते राजनेताओं को चीन और पाकिस्तान से उत्तपन्न खतरों पर बोलते हुए डर लगता है।देश की सुरक्षा का दायित्व इनकी नजरों में केवल और केवल फौज का होता है।अतः यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि आखिर राजनेताओं का दायित्व क्या है?यह विचारणीय है।