अम्बेडकर नगर। जिसे सामाजिक मान्यता न हो,जिसमें सांस्कृतिक शिष्टता और सौम्यता न हो,जिससे रिश्तों के तानेबाने शर्मसार हों, जिसमें उन्मुक्त यौन सुख की कामना मात्र आधुनिक बनने की परिचायक हो,आखिर ऐसे रिश्तों को क्या लिव इन रिलेशनशिप कहना सभ्य समाज की चिरकालीन सांस्कृतिक विरासत पर तमाचा नहीं है?क्या सामाजिक स्वीकार्यता के बगैर सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय मात्र से युवाओं में यौन सुख प्राप्त करने की उन्मुक्त भावनाएं पाशविकता को जन्म नहीं दे रही हैं?सत्य तो यह है कि भले ही सुप्रीम कोर्ट किसी नजरिये से युवाओं के मध्य बने ऐसे सम्बन्धों को जायज मानती हो किन्तु भारतीय संस्कृति व सभ्यता किसी भी दृष्टिकोण से इसका समर्थन करती हुई इसे स्वीकारने को कत्तई न तो कभी तैयार थी और न आज भी तैयार है।कहना अनुचित नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट से उचित होने का ठप्पा पाने के बावजूद लिव इन रिलेशनशिप आज भी समाज की दृष्टि में महज खुली आवारगी है,इसके सिवा कुछ नहीं है।इसे नए जमाने की मॉडर्न वेश्यावृत्ति कहना भी गलत नहीं होगा।
वस्तुतः देखा जाय तो देश का आमजनमानस,जोकि गांवों की पगडंडियों से होकर महानगरों की चकाचौंध से गुजरने के बावजूद न तो अपने दीन को त्यागता है और न ही ईमान को।वह तो अपने स्वाभिमान,सम्मान और इज्जत को हरप्रकार से अपने लिए महत्त्वपूर्ण मानते हुए लाखों धक्के खाने के बाद भी छोड़ता नहीं है।जबकि इन्हीं में से कुछेक ऐसे भी होते हैं,जो समय के सापेक्ष जरूरत से ज्यादा धन,यश और कीर्ति पाकरके बौराने लगते हैं।ऐसे लोग अन्य गाँव वालों और गरीबों को अपने से तुच्छ व निम्न जीवन स्तर का समझने लगते हैं।जिसके चलते ये जन्मदिन से लेकर प्रत्येक छोटे बड़े उत्सव पारंपरिक रीति रिवाजों के अनुसार न मनाकर वेस्टर्न तरीके से मनाना अपना स्टैंडर्ड मानने लगते हैं।लिहाजा इनकी युवा होती संतानें भी अपनी संस्कृति को ठुकराती हुई उन्मुक्त हो संस्कारों के दायरों से बाहर निकलकर स्वतंत्र यौन सम्बन्धों को स्थापित करना ही अपनी आजादी समझ बैठती हैं औरकि इसके लिए वे किसी भी हद तक गिर भी जाती हैं।जबकि उनके माता-पिता ऐसे युवाओं की प्रत्येक गलतियों को विवश हो मॉडर्न दिखने के नामपर बेमन से ही सही मगर कुबूल करते रहते हैं।जिससे विवाह जैसे पवित्र संस्कार को भी लिव इन रिलेशनशिप के नए यौनाचार के रूप में मान्यता दिलवाने के लिए न्यायालयों तक के दरवाजे खटखटाये जाते हैं।ताज़्ज़ुब तो तब और होता है जबकि न्यायालय भी सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों से परे जाकर ऐसा निर्णय सुनाता है,जिसे किसी भी स्थिति में मानने को भारतीय समाज तैयार नहीं है।
देखा जाय तो सामाजिक और सांस्कृतिक तानेबाने के धागों में दो प्रमुख धागे होते हैं।एक होता है मर्यादा रूपी धागा तो दूसरा लज्जा।किंतु यदि आधुनिकता का दूसरा नाम निर्लज्जता ही हो जाए तो मर्यादा की डोर अपनेआप तारतार हो जाती है।कदाचित खुली स्वच्छंदता और धन की अतिशयता सर्वप्रथम सांस्कृतिक धरोहर को फालतू ही नहीं मानती अपितु युवाओं में बढ़ती मनमर्जी व मनमौजी होने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा देती है।जिसमें डिजिटल मीडिया बखूबी रसोइया और बैरा बनकर नानाप्रकार के प्लेटफॉर्म रूपी व्यंजन तहेदिल से परोसती है।जिसकी शुरुआत उसीदिन से हो जाती है जब लड़के -लड़कियां विद्यार्थी जीवन में इन प्लेटफार्मों का प्रयोग वैसे तो शिक्षार्थ करना चाहते हैं किंतु शनै: शनै: फेसबुक,व्हाट्सएप व इंस्ट्राग्राम आदि डिजिटल प्लेटफार्मों को देखते देखते वे कब इन पर घूमती भद्दी भद्दी रीलों व विडियोज के दीवाने हो जाते हैं,उन्हें इसका पता ही नहीं चलता।इस तरह पूर्व किशोरावस्था से ही उनके चिंतन की दृष्टि सकार से नकार की ओर होने पर नौकरी आदि पेशा प्राप्त करने पर स्वच्छंदता में स्वत: ही बदल जाती है।कालांतर में धनागम व कमजोर होते पारिवारिक,सामाजिक तथा सांस्कृतिक बंधनों के फलस्वरूप वे अपनी मर्जी के मालिक बन बैठते हैं।जिससे उनके माता -पिता व परिजन उनसे उनके विवाहादि के संबंध में बातें तक करने से बचते हैं।यदाकदा दस प्रतिशत लोग ही अपने बेटों या बेटियों का विवाह अपनी मर्जी से अन्यथा सत्तर से नब्बे प्रतिशत तक इंगेज मैरिज तरीके और कि दो से पांच प्रतिशत तक अब लिव इन रिलेशन में रहते हुए देखे जा सकते हैं।यद्यपि समाज में ऐसों की संख्या अभी अत्यंत अल्प है किंतु तालाब को प्रदूषित करने के लिए एक सड़ी मछली,चेहरे को कलंकित करने के लिए एक ही धब्बा काफी होता है,पर्याप्त होता है।
सनातन संस्कृति में विवाह आठ प्रकार के वर्णित हैं।जिनमें लिव इन रिलेशनशिप जैसे संबंधों का जिक्र तक नहीं है।हां,स्वयंवर और प्रेम विवाह सनातन की प्राचीन परंपराएं अवश्य हैं किंतु विवाहपूर्व या विवाहेत्तर शारीरिक संपर्कों और संबंधों को प्रत्येक रूपों में हेय माना गया है।पिशाच विवाह भी आजकल के लिव इन रिलेशन जैसे रिश्तों से इतर श्रेणी में आता है,जोकि समाज में पहले से ही हेय माना जाता है।इस प्रकार यह कहना नितांत सही है कि समाज द्वारा मान्य और ग्राहय संबंध ही जीवनमूल्यों से ओतप्रोत मान्य संबंध हैं,लिव इन रिलेशन नहीं।