Saturday, April 27, 2024
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विश्व मातृभाषा दिवस पर विशेष- माध्यम नहीं, मौलिकता है मातृभाषा –उदय राज मिश्रा


अम्बेडकर नगर। सुभाषितरत्नानिभण्डागाराम में लिखा गया है –

“काक:कृष्ण:पिक:कृष्ण:को भेदो पिककाकयो:।”

 बसंत   समये  प्राप्ते  काक:काक: पिक: पिक:।।

कदाचित इसी श्लोक का हिंदी भाषा में निम्नवत सुंदर  अभिव्यक्ति की गयी है-

“कोयल  काको  लेति है,कागा  काको  देय।

 मीठे वचन सुनाय के,जग बस में करि लेय।।”

    जिससे यह बात तो स्पष्टतः समझ में आती है कि भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा एकदूसरे से अपने मनभावों को अभिव्यक्त किया जा सकता है,एकदूसरे को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।किंतु प्रश्न यह उभरता है कि अपने उद्गारों और मनभावों को व्यक्त करने के लिए सर्वोत्तम माध्यम कौन है?किस भाषा में कोई अपने भावों का सर्वोत्कृष्ट कथन कर सकता है या किसी दूसरे के भावों,विचारों अन्यथा कि उद्गारों को आत्मसात कर सकता है,तो निःसन्देह सर्वमान्य तरीके से कहा जा सकता है कि इसके लिए मातृभाषा से बेहतर कोई अन्य उपागम या माध्यम हो ही नहीं सकता है।जिससे यह बात स्वत्:प्रमाणित होती है कि अभिव्यक्ति के लिए मौलिकता प्रधान है न कि माध्यम।अतएव मातृभाषा को ही वह मौलिक भाषा कहा जाना चाहिए जिसके माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे से उत्कृष्ट सम्प्रेषण सम्बंध स्थापित करते हुए आत्मसातीकरण करता है।जैसे कि भाषा के आधार पर ही समान रूप,रंग होने के बावजूद कोयल और कौवे में भेद स्प्ष्ट हो जाता है।इसप्रकार कहा जा सकता है कि किसी को समझने के लिये या समझाने के लिए मौलिकता की ,मातृभाषा की आवश्यकता होती है,माध्यम की नहीं।माध्यम मौलिकता की तुलना में अपेक्षाकृत निम्नतर स्थिति होता है।

    मातृभाषा  भावाभिव्यक्ति की वह भाषा होती है जिसे कोई भी व्यक्ति शिशुरूप में सर्वप्रथम अपनी माता से सुनता है,सुनकर तदानुरूप आचरण करते हुए अनुकरण कर अपनी अभिव्यक्ति या प्रतिक्रिया करता है।

   वैश्विक स्तर पर भारत की जो पहचान है,कदाचित वह भारतीयों के मौलिक चिंतन,सृजन और लेखन की ही देन हैं।विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद,पुराण, उपनिषद,रामायण,महाभारत आदि के कारण ही भारत को पूरी दुनियां ने विश्वगुरु के रूप में स्वीकार किया था न कि खुशवंत सिंह,बच्चन और कमला दास के अंग्रेज़ी प्रधान लेखन से।भाषाई मौलिकता ही हृदय के उद्गारों के सम्प्रेषण का सबसे सटीक माध्यम होती है।अस्तु यह कहना कि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा से इतर किसी अन्य माध्यम से बेहतर सम्प्रेषण कर सकता है,तो इससे बड़ा कोई अन्य झूठ हो ही नहीं सकता।ऐसे लोगों को भाषाई दास कहा जा सकता है जो चंद शब्दों को ही जानकर उन्हीं के सहारे अपने को तुर्रमखां समझने की भूल कर बैठते हैं।

   मातृभाषा कारागार में बन्द ताले की चाभी होती है।मातृभाषा ही व्यक्ति को अपनी संस्कृति, सभ्यता और अपने महान ग्रन्थों का सम्यक परिचय कराते हुए तदानुरूप जीवनवृत्तियों का निर्माण करती है।मातृभाषा के जीवित रहते व्यक्ति अपनी महान संस्कृति से दूर नहीं होता है।जिससे अन्य देश या भाषाभाषी लोग उन्हें अपना गुलाम नहीं बना सकते।यही कारण है कि जब कोई आक्रांता किसी देश पर आक्रमण करके विजय प्राप्त करता है तो सर्वप्रथम वहां की भाषा पर हमला बोलते हुए विद्यालयों और वहां की शिक्षा व्यवस्था को बदलने का प्रयास करता है।भारत तो ऐसी सहस्रों घटनाओं का साक्षी रहा है जबकि नालंदा,तक्षशिला जैसे विश्वस्तरीय संस्थानों को जलाया गया,लार्ड मैकाले द्वारा गुरुकुलों की शिक्षा अमान्य कर अंग्रेजियत थोपी गयी।जिसका परिणाम आज भी दिखाई देता है कि आजादी के इतने दशकों बाद भी अंग्रेज़ी पढ़ने और बोलने वाले लोग स्वयम को उन लोगों से बेहतर समझते हैं जो भारतीय भाषाओं को बतौर मातृभाषा के रूप में व्यवहृत करते हैं।कदाचित अंग्रेज़ी पढ़ने और बोलने वालों की यही सोच उनकी मानसिक गुलामी की परिचायक और भारत की सांस्कृतिक एकता में सबसे बड़ी बाधक तत्व है।

   मातृभाषा के महत्त्व को भला बांग्लादेशी व फ्रांसीसी तथा भारतीय कैसे भुला सकते हैं।इतिहास साक्षी है कि भारत से अलग होने के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान जोकि अब बांग्लादेश है,वहां 21 फरवरी 1952 को बंगाली भाषा को तरजीह देने के लिए व्यापक आंदोलन इसीलिए हुआ था क्योंकि तब की पाकिस्तानी सरकार उनपर जबरिया उर्दू थोप रही थी।लिहाजा पाकिस्तानी सरकार ने जो जुल्मोसितम पूर्वी पाकिस्तान पर ढाया था,उसके  परिणामस्वरूप 1971 में भारत-पाक युद्ध व बांग्लादेश की आज़ादी के रूप में सामने आया।इसीतरह 1887 में बर्लिन सरकार द्वारा फ्रांस पर हमलाकर वहां के अलसास व लॉरेन नामक दो मुख्य नगरों पर बड़ी सहजता से कब्जा सिर्फ इसीलिए कर लिया गया था क्योंकि वहां के लोग फ्रेंच भाषा,जोकि उनकी मातृभाषा थी, के प्रति उत्सुक न होकर जर्मन भाषा को पढ़ने में रुचि प्रकट करते थे।जिससे कहा जा सकता है कि दैहिक दासता तो बंधन काटकर आसानी से प्राप्त की जा सकती है किंतु मानसिक दासता से मुक्ति तभी मिल सकती है जब चिंतन  मौलिक व मातृभाषा में हो,अन्य माध्यम में न हो।मातृभाषा और मौलिकता के महत्त्व को वर्णन करते हुए 1909 में महात्मा गांधी ने “स्वराज्य”में लिखा था कि यदि मुझे निरंकुश बना दिया जाय तो मैं सर्वप्रथम भारत से अंग्रेज़ी का उन्मूलन करूँगा,अंग्रेजों का नहीं।इसीतरह फ्रांस के प्रख्यात लेखक अल्फांसो दौडत भी लिखते हैं कि मातृभाषा गुलामी के विरुद्ध एकप्रकार की मुक्ति की चाभी होती है।यही जीवन का आखिरी और पहला पाठ होना चाहिए।इसप्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य के मनभावों,विचारों और उनके उद्गारों को जिस बेहतर तरीके से सुना,समझा,लिखा, पढा या बताया जा सकता है,उसके लिए माध्यम की नहीं अपितु मातृभाषा की आवश्यकता पड़ती है।

   विश्वस्तर पर 21 फरवरी 1952 को बांग्लादेश में हुए भाषाई आंदोलन के चलते ही बहु भाषाभाषियों को महत्व देने तथा एकदूसरे से बेहतर संवाद स्थापित करने के निमित्त ही यूनिसेफ ने प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित कर दिया है।जिसका मूल उद्देश्य यह है कि ज्यादा से ज्यादा मौलिक चिंतन को बढ़ावा मिले तथा भाषा को लेकर परस्पर द्वंद न हों।वस्तुतः यूनिसेफ ने ब्रिटेन में रहने वाले 1999 तुर्की के बच्चों पर अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि जो बच्चे अपने घर में अपनी मातृभाषा का ही प्रयोग करते हैं और बाहर अन्य भाषाओं में भी सम्प्रेषण स्थापित करते हैं,वे अधिक बुद्धिमान व दक्ष होते हैं।जबकि जो बच्चे अपने घरों में अपनी मातृभाषा की बजाय किसी दूसरी भाषा में बातचीत करते हैं,वो अपेक्षाकृत मंद और मानसिक गुलाम होते हैं।यही कारण है कि प्रतिवर्ष 21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।जिसका मूल उद्देश्य यह है कि हम सब अपने घरों व समाजों में अपनों के मध्य अपनी ही मातृभाषा में संवाद स्थापित करें।इससे हर कोई सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्थाओं,कुरीतियों,सुधारों और समस्याओं के प्रति अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकता है।

    भारत जोकि बहुभाषाभाषी देश है,के परिप्रेक्ष्य में विश्व मातृभाषा दिवस की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है जबकि यहां के लोग अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेजियत के गुलाम होते जा रहे हैं।यह स्थिति हमारी सांस्कृतिक एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।अतः प्रत्येक भारतीय को चाहिये कि वो अपने घरों में सदस्यों से केवल अपनी मातृभाषा में ही वार्तालाप करे,लेखन करे और विद्यालयों में अध्ययन करे।भारत में जहां की बहुत बड़ी आबादी 14 वर्ष तक ही शिक्षा ग्रहण करती है,वहां तो मातृभाषा में शिक्षण और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।इसप्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के निम्न कथन की प्रासंगिकता हमसबको अवश्यमेव अंगीकृत करना चाहिए,जैसा कि उन्होंने लिखा है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कर मूल।

बिनु निज भाषा ज्ञान के,मिटे न हिय के शूल।।

  अस्तु सारसंक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि सम्प्रेषण के लिए उचित माध्यम मातृभाषा ही हो सकती है।यही व्यक्तित्व के विकास की पहली सीढ़ी और आखिरी सोपान है।अपनी मातृभाषा से इतर किसी अन्य भाषा में लेखन,प्रकाशन या कथन मनभावों के पूर्ण और सहज प्रकटीकरण या प्रस्फुटिकरण का कथन नहीं हो सकता है

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