Home Ayodhya/Ambedkar Nagar अम्बेडकर नगर मनसबदार से छत्रपति बनते कश्मीरी हिन्दू–उदय राज मिश्रा

मनसबदार से छत्रपति बनते कश्मीरी हिन्दू–उदय राज मिश्रा

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अंबेडकर नगर। विद्वानों के अनुसार यदि प्रश्न अस्तित्व और समय संकट का हो तो डरकर पलायन करना समस्या समाधान का उपाय नहीं हो सकता है।ऐसे ही समय में मनुष्य के धैर्य और साहस की परीक्षा होती है।कदाचित कश्मीर से खौफ और भय के चलते एकबार फिर पलायन करने को उद्यत कश्मीरी हिंदुओं के लिए भी आज का दौर जीवन रक्षा से अधिक उनके अस्तित्व पर आए संकट का है।अतः ऐसे समय में कश्मीर से पलायन की बजाय आतंकियों से लड़ने हेतु प्रयाण की आवश्यकता है।यदि ऐसा होता है तो  कश्मीरी हिंदुओं की किसी शिवाजी की तलाश भी पूरी होगी जो उनके वजूद और अस्तित्व के लिए मील का पत्थर साबित होगी।

     वस्तुतः देखा जाय तो वर्ष 1989 और 1990 में कश्मीर में हुए हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार,बलात्कार,अपहरण और उनकी जमीनों पर कब्जे भारत की गंगा जमुनी तहजीब पर किसी कलंक से कम नहीं है।ये वो बदनुमा दाग है जो फारूख अब्दुल्ला,महबूबा मुफ्ती,हुरियत कॉन्फ्रेंस,कांग्रेस और भाईचारे की रट लगाने वाले निजामे मुस्तफा के हमसफ़र तथाकथित मौलवियों,मुल्लों व सियासी पार्टियों के माथ पर सदैव अमिट धब्बा बनकर आज भी कश्मीरी हिंदुओं को चिढ़ाता रहता है।अलबत्ता एक भाजपा और राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ जैसे संगठनों को छोड़कर अन्य सभी का कश्मीरी हिंदुओं की दुर्दशा के प्रति मौन होना देश मे समरसता,एकता और अखंडता की भावना में जहर घोल रहा है।

     वैसे तो भारत का ऐसा इतिहास रहा है कि जबजब यहां विधर्मी शक्तियां सबल हुई हैं तबतब कोई न कोई धर्मध्वज संवाहक यहां अवतरित होता रहा है।कदाचित आज यही तलाश कश्मीरी हिंदुओं की भी है किंतु यह तलाश तबतक पूरी नहीं हो सकती जबतक कश्मीरी हिन्दू स्वयम को पलायन की बजाय आतंकियों से लड़ने हेतु प्रयाण को उद्यत नहीं दिखते।कश्मीरी हिंदुओं के मन में बैठा भय उनको कायर बनाता जा रहा है।उन्हें हरबात पर सेना की आस रहती है,जबकि सेना एक एक व्यक्ति की सुरक्षा कभी भी नहीं कर सकती।अतः कश्मीरी हिंदुओं को शिवाजी की तलाश पूरी होने तक स्वयम चाणक्य,चंद्रुगुप्त, राणा प्रताप और भामाशाह बनना होगा।कश्मीरी हिंदुओं को अकबर-राणा प्रताप,औरंगजेब-शिवा जी,सिकन्दर-चंद्रगुप्त और अन्यान्य उपाख्यानों से सीख लेनी पड़ेगी अन्यथा वे न तो स्वयम की रक्षा में समर्थ होंगें और न ही स्वजनों का बचाव ही कर पायेंगें।

     जैसे को तैसा प्रत्युत्तर देना राजनीति और धर्म दोनों ही कि नजर में सर्वथा उचित कहा जाता है।जब साम,दाम और भेद जैसी नीतियां असफल हो जाएं तो दण्ड का विधान ही अंतिम अनिवार्य विकल्प बचता है।कदाचित कश्मीरी हिंदुओं की सुरक्षा हेतु अब फौज व हिंदुओं के पास दण्ड के अलावा कोई और विकल्प शेष भी नहीं है।अतः हिंदुओं को सेना द्वारा प्रशिक्षित किया जाना ही नहीं अपितु उन्हें पर्याप्त उन्नत किस्म के असलहे भी मुहैया कराया जाना समय की मांग है।जिससे सेना भी मजबूत होगी और कश्मीर भी शांत होगा।

 मनु स्मृति में लिखा है कि-

आततायिनम आयन्तम अन्यादेवsविचारत:

    अर्थात शास्त्रों की ऐसी आज्ञा है कि आतताइयों का विनाश करना ही लोकरंजन के लिए किया गया कृत्य होता है।अतः कश्मीर में आततायियों का उन्मूलन ही कश्मीरियत की रक्षा का सर्वथा समीचीन उपाय है।प्रश्न जहाँ तक हिंसा और प्रतिहिंसा या अहिंसा का है तो आज का दौर आतंकियों के परिप्रेक्ष्य में गांधी की अहिंसा के मसले पर  ऐसा गुनाह होगा कि जिसकी सजा सदियों तक औलादों को भुगतना पड़ेगा।हकीकत में अहिंसा के गांधियन विचारों से वैसे तो कभी पण्डित नेहरू व नेताजी भी सहमत नहीं थे किंतु ये बात और थी कि गांधी जी अपनी जिद से अपनी हरबात मनवा लेते थे।किंतु आज कश्मीरियत की रक्षा के लिए नेहरू और नेता जी के अहिंसा सिद्धांतों का अनुपालन कश्मीरी हिंदुओं को भी करना प्रासङ्गिक है।पण्डित नेहरू के अनुसार-

अत्याचारी के पैरों पर,गिर जाना भारी हिंसा है।

पापी के शीश कुचल देना,ही हिंसा नहीं अहिंसा है।।

    इसीतरह आजाद हिंद फौज के जनप्रिय और आज भी भारतीयों की आत्मा में जीवंत नायक के रूप में विराजमान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक फौजी के रूप में अहिंसा को निम्नवत पारिभाषित किया है-

चाहे हों बंदूक उगलती,प्रतिपल सम्मुख गोलियां।

अंग अंग कट जाए वीरों, मचे खून की होलियां।।

   कदाचित आज कश्मीर को ऐसी ही अहिंसा की आवश्यकता है।जिसे पढ़ना और पढ़ाना कश्मीरियत की रक्षा और हिंदुओं के पलायन रोकने के लिए ही नहीं अपितु घाटी में पुरजोर अमन बहाली के लिये भी जरुरी है।यहाँ मेरा यह अभिप्राय कत्तई नहीं है कि मैं कश्मीरी हिंदुओं को प्रतिहिंसा के लिए,सङ्घर्ष के लिए प्रेरित करूँ किन्तु मेरे विचार से पलायन समाधान का उचित उपाय नहीं है।इससे से आतंकियों का मनोबल बढ़ेगा, वे हमले और तेज़ कर सकते हैं।अतः आतंकियों के मनोबल तोड़ने और शांति स्थापना हेतु  हिंदुओं का सशक्त और प्रशिक्षित होना जरूरी है।हिंदुओं को प्रशिक्षित करने का अभिप्राय कानून को अपने हाथ में लेने से नहीं किन्तु आत्मरक्षार्थ आतंकियों को गोली मारने से अवश्य है।क्योंकि जो हाथ अपनी रक्षा के लिए नहीं उठ सकते उनसे औरों की सुरक्षा करने की उम्मीद व्यर्थ है।

   अतएव कश्मीर में स्थानीय प्रशासन,सुरक्षाबलों,सेना और केंद्रीय सरकार के समन्वित प्रयासों के साथ ही साथ स्थानीय जनता का भी आतंकियों के प्रति रवैया नकारात्मक होना जरूरी है।जबतक स्थानीय मुस्लिम आतंकियों के शरणदाता बने रहेंगें,नेता कवच बने रहेंगें तबतक तो हिंदुओं पर आक्रमण होने की प्रबल संभावना बनी ही रहेगी।अस्तु यदि कश्मीरी हिन्दू भी ठान ले कि वे शिवाजी,राणाप्रताप और चंद्रगुप्त की राह चलने को उद्यत हैं तो आधी समस्या उसी दिन समाप्त हो जाएगी जबकि शेष आधी को सेना देख लेगी।आज वक्त है एक एक हिन्दू के दृढ़ निश्चयी होने का न कि बोरिया बिस्तर बांधकर भागने का।जरूरत है शिवाजी बनने की न कि तलाश करने की।कदाचित भारत सरकार द्वारा पाकिस्तान,चीन और तुर्की के बहिष्कार के बावजूद जिस तरीके से भव्यतापूर्ण जी-20 का सफल आयोजन किया गया वह इसी दिशा में बढ़ता हुआ कदम ही कहा जा सकता है।इस आयोजन ने विमर्श के जो सोपान तय कर रखे हैं वह कश्मीर को जहाँ विकास की ऊंचाइयों तक लेकर जाएगा वहीं कश्मीरियों के अंदर घर बना चुके अज्ञात भय से भी मुक्ति दिलाएगा।इसप्रकार कहा जा सकता है कि बदलते दौर का कश्मीर लड़खड़ाने के बावजूद अब एकबार फिरसे संभलकर शिवाजी बनेगा और मनसबदार की जगह छत्रपति का खिताब धारण करेगा।

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