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तीर्थयात्रा और स्नान के फल

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अंबेडकर नगर। पर्व हमारे सामाजिक,सांस्कृतिक समन्वय के साथ साथ भौगोलिक ऐक्य के प्रतीक हैं।धर्म और मोक्ष के ये स्प्ष्ट साधन भी हैं।तीर्थयात्राएं व पवित्र नदियों में स्नान-दान आदि कर्म पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के द्वार  औरकि इनके पूरक प्रयत्न हैं।किंतु कुछ लोगों की दृष्टि में तर्क की जगह कुतर्क तथा भाव की जगह कुभाव होता है।इसीलिए गोस्वामी जी ने कहा है-

“जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।”

 शास्त्रों के अनुसार नाम संकीर्तन भी भक्तों का कल्याण करने का सबल व प्रबल उपागम है।किंतु जो लोग सात्विक श्रद्धा से हीन होकर अपने और राष्ट्र की कल्याण भावना से नहीं,अपितु वैयक्तिक भौतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए गंगा स्नान के लिए जाते हैं,उन्हें केवल स्नान का फल ही मिल सकता है,तीर्थयात्रा का नहीं।”शंख स्मृति”में स्प्ष्ट लिखा है कि–

“तीर्थ प्राप्तयानुख्डगेन स्नान तीर्थे समाचरन।स्नानजम फलमाप्नोति तीर्थयात्रा फलम न तु।”

    अर्थात तीर्थयात्रा के प्रसंग से श्रद्धा के बिना किसी तीर्थ पर स्नान करते हैं,उन्हें फल तो अवश्य मिलता है किंतु उनके महात्म्य में वर्णित यात्रा का फल नहीं।

  यही कारण है कि प्राचीन समय से लोग पैदल आदि चलकर संगम स्नान करने जाते थे।किंतु जो लोग तीर्थ सरीखे स्थानों पर आकर भी अपनी दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग नहीं करते,प्रत्युत वहाँ भी पापाचार ही करते हैं,वह अवश्य ही कल्प कल्पान्तरों के लिए नरक में ही जायेगा।जैसा कि लिखा है-

“अन्य क्षेत्रे कृतं पापम क्षेत्रे प्रणश्यति।तीर्थ क्षेत्रे कृतं पापम वज्रलेपो भविष्यति।”

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