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बी.एन.के.बी. पी.जी. कॉलेज में जैन साहित्य परम्परा में ऋषभदेव एवं राम’ विषयक एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन

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अम्बेडकरनगर । जिला मुख्यालय स्थित बी.एन.के.बी. पी.जी. कॉलेज, अकबरपुर और उत्तर प्रदेश जैन विद्या शोध संस्थान, लखनऊ के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘जैन साहित्य परम्परा में ऋषभदेव एवं राम’ विषयक एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। राष्ट्रीय-संगोष्ठी का उद्घाटन मुख्य अतिथि  प्रो. अनिल कुमार शुक्ला, पूर्व कुलपति, रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली/ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय लखनऊ/ महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर और  प्रो. पवन अग्रवाल, सभापति, भारतीय हिंदी परिषद्, प्रयागराज ने माँ सरस्वती की प्रतिमा पर पुष्पार्पण और दीप-प्रज्ज्वलन करके किया।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता प्रो. शैलेंद्र नाथ मिश्र, संयोजक, हिंदी, डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या ने की. बीज वक्तव्य डॉ. आनंद जैन, सहायक आचार्य, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने दिया. स्वागत-भाषण प्रो. शुचिता पाण्डेय, प्राचार्य, बी.एन.के.बी. पी.जी. कॉलेज, अकबरपुर ने दिया और धन्यावद राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन सचिव डॉ. शशांक मिश्र ने किया। संचालन वागीश शुक्ल ने किया

प्रो. शैलेंद्र नाथ मिश्र, संयोजक, हिंदी, डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या  ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि रामकथा जन आस्था का केन्द्र : पुराण और इतिहास की सीमाओं को लाँघकर ‘राम’ और उनकी ‘रामकथा’ जन-आस्था का केंद्र बन चुकी है यह एक सर्वमान्य तथ्य है। निःसंदेह, राम का आदर्श चरित्र देश-काल की सीमाओं को तोड़कर विश्व साहित्य को भी प्रभावित करता रहा है। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा हिंदी क साथ-साथ असमिया, बंगला, उड़िया, तमिल एवं कन्नड़ आदि भाषाओं के कवियों ने ‘रामकथा’ को बहुत आदर एवं निष्ठा के साथ ग्रहण करके युगानुरूप अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। जैन धर्मावलंबी कवियों , रचनाकारों ने ‘रामकथा’ को अत्यंत आदर और श्रद्धा के साथ ग्रहण करके धर्म एवं दर्शन के साथ-साथ जैन समाज एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया है।

मुख्य अतिथि  प्रो. अनिल कुमार शुक्ला, पूर्व कुलपति, रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली/ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय लखनऊ/ महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर ने कहा कि ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर और राम (पद्म), जो जैन कथाओं में एक आदर्श पुरुष के रूप में चित्रित हैं, दोनों ही जैन साहित्य के आधारभूत व्यक्तित्व हैं। संगोष्ठी इन चरित्रों के जीवन, उनके योगदान और साहित्य में उनके चित्रण की गहन पड़ताल कर सकती है, जिससे जैन परंपरा की प्राचीनता और व्यापकता स्पष्ट होती है।

विशिष्ट अतिथि प्रो. पवन अग्रवाल, सभापति, भारतीय हिंदी परिषद्, प्रयागराज ने कहा कि जैन रामायण में राम अपने अनुज की मृत्यु के शोक में जैन धर्म की दीक्षा ले लेते हैं इस विलक्षण परिवर्तन का ही यह परिणाम हुआ है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के ‘शील-शक्ति-सौंदर्य’ वाले जनप्रिय स्वरूप से स्थान पर जैन रामकथा के नायक ‘राम’ के चरित्र में केवल ‘शील एवं सौंदर्य’ की ही अभिव्यक्ति कवियों द्वारा की गयी और शौर्य-पराक्रम का समावेश जैन कवियों द्वारा राम के चरित्र में नहीं किया जा सका।

डॉ. आनंद जैन, सहायक आचार्य, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने बीज वक्तव्य देते हुए कहा कि रामकथा किसी धर्म विशेष के दायरे में नहीं बाँधी जा सकती है, यह स्वतः संपूर्ण भारतीय साहित्य में आत्मसात होने वाली चरित-औषधि है। इस चरित-औषधि से भारतीय समाज चरित्र के उत्कर्ष पर स्थापित हुआ है। जैन आचार्यों ने मनुष्य में भी सभी गुण पुरुषार्थ से उत्पन्न हो सकते हैं यह स्पष्ट संकेत दिया। गुणों की प्राप्ति के लिए स्वकृत पुरुषार्थ और आत्मबल ही पर्याप्त है । आज भी उत्तम श्रावक के रूप में राम का चरित जैन-परंपरा में समादरणीय है।

महाविद्यालय की प्राचार्य प्रो. शुचिता पाण्डेय ने सभी अतिथियों और प्रतिभागियों स्वागत करते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय संगोष्ठी जैन साहित्य परंपरा को केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी समझने का अवसर प्रदान करती है। ऋषभदेव और राम के चरित्रों के माध्यम से यह मानवता के समक्ष मौजूद चुनौतियों के समाधान हेतु प्रेरणा का स्रोत बन सकती है।

प्रथम अकादमिक सत्र में प्रो. श्रुति, हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहे. विशिष्ट वक्तव्य प्रो. परेश पांडेय, प्राचार्य, बाबा बरुआ दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, परुइय्या आश्रम, अम्बेडकरनगर ने दिया . प्रो. हरीश कुमार शर्मा, हिंदी विभाग, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु, सिद्धार्थनगर, डॉ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव, हिंदी विभाग, बाबा साहेब भीमराव विश्वविद्यालय, लखनऊ, डॉ. नेहा जैन, सहायक आचार्य, समाजशास्त्र, प.दीनदयाल उपाध्याय राजकीय महाविद्यालय, राजाजीपुरम, लखनऊ ने अपने विचार रखे और अध्यक्षता  प्रो. संजय जैन, गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज, दौसा, राजस्थान ने की.

प्रो. संजय जैन, गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज, दौसा, राजस्थान ने अपनी अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि जैन परंपरा के अनुसार यह वर्तमान के 24 में से पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि है बस इतना ही नहीं है ,बल्कि यह अनंतानंत तीर्थंकरों की जन्मभूमि भी है और प्रत्येक चतुर्थकाल में चौबीसों तीर्थंकर प्रभु नियम से अयोध्या में ही जन्म लेते हैं । वर्तमान के हुंडावसर्पिणी काल के दोष के कारण प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ,द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ,चतुर्थ तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ ,पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ एवं चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ इन पांच की ही आज जन्मभूमि है।

प्रो. श्रुति, हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ ने कहा कि कालांतर में धार्मिक संस्थाओं और कर्मकांडों की बढ़ती महत्ता, यज्ञ और यज्ञबलि के प्राधान्य, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक उथल-पुथल, वर्णव्यवस्था, भाषाई वर्चस्ववाद आदि की प्रतिक्रिया से ईसा पूर्व छठी सदी में अनेक धार्मिक समुदाय जैसे चार्वाक संप्रदाय, बौद्ध और जैन धर्म सहित लगभग बासठ ज्ञात संप्रदाय उभरे । इनमें से सर्वाधिक मान्यता बौद्ध और जैन धर्म को ही मिली, लेकिन जहां कालांतर में बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि भारत में अतीत का वर्णन हो गया, वहीं जैन धर्म व्यापार समुदाय और धनिकों से जुड़ा होने के कारण फलता फूलता रहा। यद्यपि जैन धर्म के वर्तमान स्वरूप पर इसके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के विचारों, सिद्धांतों और कार्यों का व्यापक प्रभाव है।

प्रो. हरीश कुमार शर्मा, हिंदी विभाग, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु, सिद्धार्थनगर ने कहा कि जैनधर्म के लिए भी खास है अयोध्या :अयोध्या आज राम भगवान की प्राण प्रतिष्ठा के कारण दुनिया में सबकी जुबान पर है, चारों ओर अयोध्या और राम नाम की चर्चा है , आपको पता होना चाहिए कि अयोध्या का जैन धर्म से भी  खास संबंध है। जैन परंपरा के अनुसार, 24 तीर्थकरों में से पांच का जन्म अयोध्या में हुआ। जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ), जिनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा,  अजितनाथ, अभिनंदन नाथ, सुमित नाथ और अनंतनाथ शामिल हैं। यही नहीं, अयोध्‍या में मौजूद जैन मंदिर भी संबंधों की मजबूत कड़ी की गवाही देते हैं। पांच तीर्थंकर भगवंतों की जन्मभूमि अयोध्या में  समय-समय पर इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से देखा जाय तो खुदाई  से प्राचीन श्रमण परंपरा यानि जैनधर्म के अवशेष प्राप्त होते  रहे हैं।

डॉ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव, हिंदी विभाग, बाबा साहेब भीमराव विश्वविद्यालय, लखनऊ ने कहा कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था। जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव का ऋग्वेद, अथर्ववेद, मनुस्मृति तथा भागवत आदि ग्रंथों में भी वर्णन है। भगवान राम जैन रामायण के अनुसार जैन धर्म के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुब्रत नाथ भगवान के समकालीन माने जाते हैं वही रावण ने सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांति नाथ की उपासना की और उनका भी विवरण बीसवें तीर्थंकर के काल में मिलता है। अर्थात जैन धर्म का अयोध्या से भगवान राम से पूर्व ही बड़ा प्राचीन रिश्ता है।

डॉ. नेहा जैन, सहायक आचार्य, समाजशास्त्र, प.दीनदयाल उपाध्याय राजकीय महाविद्यालय, राजाजीपुरम, लखनऊ ने कहा कि भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में इन्द्रो द्वारा निर्मित ‘अयोध्या’ नगरी भी तीर्थकरों की जन्मभूमि होने से ‘महातीर्थ’ मानी गयी है। यह अनादि इसलिये मानी गयी है कि हमेशा अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के चतुर्थकाल के प्रारम्भ में इन्द्रों द्वारा बसायी गयी होने पर भी यहां पर हमेशा चौबीस-चौबीस तीर्थकर होते हैं अतः यह इस दृष्टि से शाश्वत, अनादि है।

इस अवसर पर महाविद्यालय शिक्षक-कर्मचारी परिवार, प्रबंध-समिति समेत बड़ी संख्या में अन्य महाविद्यालयों के शिक्षक, शोधार्थी, नगर के गणमान्य नागरिक और बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

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