Home Ayodhya/Ambedkar Nagar अयोध्या पाठ्यपुस्तकों को अपने पिछले स्वरूप में किया जाय बहाल : सत्यभान सिंह

पाठ्यपुस्तकों को अपने पिछले स्वरूप में किया जाय बहाल : सत्यभान सिंह

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अयोध्या । शहीद भगतसिंह स्मृति ट्रस्ट के चेयरमैन सत्यभान सिंह जनवादी ने सरकार की शिक्षा नीतियों का विरोध करते हुए कहा कि विद्यार्थियों का बोझ कम करने के नाम पर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में जिस तरह के बदलाव किए गए हैं और अलग-अलग माध्यमों में जैसे कुतर्कों के साथ उनका बचाव किया जा रहा है। दोनों बेहद चिंताजनक और निंदनीय हैं। 2022 के जून महीने में एनसीईआरटी ने इन बदलावों की सूची जारी की थी। तदनुसार संशोधित पाठ्यपुस्तकें अब 2023-24 के सत्र के लिए बाज़ार में उपलब्ध है।जिनमें ऐसे संशोधन भी है। जिनका पुनर्संयोजित सामग्री की सूची में उल्लेख नहीं था। अलग-अलग दर्जों की इतिहास, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, विज्ञान, हिंदी आदि की किताबों से मुग़ल काल, गुजरात दंगे, आपातकाल, नक्सलबाड़ी आंदोलन, वर्ण और जाति संघर्ष, जन आंदोलनों के उभार, डार्विन के विकासवाद, दलित लेखकों के उल्लेख और मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद के उल्लेख से संबंधित अंशों को जिस तरह हटाया गया है, वह साफ़ बताता है कि इस पुनर्संयोजन का मक़सद शैक्षणिक न होकर पूरी तरह से राजनीतिक है। महात्मा गाँधी की हत्या के प्रसंग से उन वाक्यों को निकाल बाहर किया गया है जो आरएसएस-भाजपा के लिए असुविधाजनक थे और यह बदलाव पुनर्संयोजित सामग्री की सूची में भी शामिल नहीं था।
उन्होने कहा कि हिंदुत्व के एजेंडे के हिसाब से पाठ्यपुस्तकों में किए गए ये बदलाव यह सुनिश्चित करते हैं कि विद्यार्थी न सिर्फ़ भारतीय इतिहास और राजनीति के ऐसे प्रसंगों से अनभिज्ञ रहें जो सत्ताधारी दल के लिए असुविधाजनक हैं बल्कि उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक चेतना का विकास भी अवरुद्ध हो जो कि हिंदुत्ववादी सोच के लिए सर्वानुमति निर्मित करने में मददगार साबित होगा। यही कारण है कि लगभग 200 इतिहासकारों और समाजवैज्ञानिकों ने बयान जारी कर इतिहास तथा राजनीतिशास्त्र की किताबों में किए गए बदलावों का विरोध किया है और 1800 वैज्ञानिकों तथा विज्ञान-शिक्षकों ने बयान जारी कर डार्विन के विकासवाद को दसवीं कक्षा से, जिसमें विज्ञान की पढ़ाई सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है, हटाए जाने का विरोध किया है।
उन्होने कहा कि इन बदलावों का बचाव करते हुए कुछ लोगों ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उनमें यह सफ़ेद झूठ भी शामिल है कि किसी एक कक्षा से वही चीजें हटाई गई हैं जो दूसरी कक्षा की किताब में मौजूद हैं। किताबों की जाँच से यह बात बिल्कुल ग़लत साबित होती है। सच्चाई यह है कि देश की साझा सांस्कृतिक विरासत के प्रति आश्वस्त करनेवाले और लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, आलोचनात्मक नज़रिए को प्रोत्साहित करनेवाले अंशों से मौजूदा निज़ाम को दिक़्क़त है। इसीलिए बदलावों का समर्थन करते हुए 12 अप्रैल के ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में लिखी अपनी टिप्पणी में जनेवि की कुलपति खुद को यह कहने से नहीं रोक पायीं कि ‘अगर इतिहास की इन किताबों के लेखक स्कूल के बच्चों को मुग़लों की उदारता और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने की ज़रूरत महसूस करते हैं, तो उनकी धार्मिक बुनियादपरस्ती की कहानियों की उम्मीद करना भी उतना ही समुचित होगा।’ असली इरादे इसी तरह बेनक़ाब होते हैं। यह भारत के इतिहास को हिंदू-मुसलमान में बाँटकर देखनेवाली वही औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि है जिसका उपयोग औपनिवेशिक ताक़तें ‘बाँटो और राज करो’ की नीति के तहत करती आई थीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि आज के दौर में इस सोच के साथ पाठ्यपुस्तकों को बदला जाना दुर्भाग्यपूर्ण और खतरनाक है।
उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों, विज्ञान-शिक्षकों और समाजवैज्ञानिकों द्वारा किए गए विरोध के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता है और अविवेक को बढ़ावा देनेवाले इस कथित ‘रैश्नलाईज़ेशन’ को वापस कर पाठ्यपुस्तकों को अपने पिछले स्वरूप में बहाल किए जाने की माँग करता है।

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