अम्बेडकर नगर, 15 दिसम्बर। कहा गया है कि-वृत्तम यत्नेन संरक्षेत।कदाचित अंग्रेज़ी साहित्य में भी कहा गया है कि-Character is lost, everything lost. यही नहीं महान शिक्षाशास्त्री पेस्टलोंजी ने भी उत्तम नैतिक विचारों की अभिवृद्धि को ही शिक्षा कहकर पुकारा है।महान दार्शनिक और शिक्षाविशारद स्वामी विवेकानंद जी ने भी मनुष्य की अंतर्निहित शक्तियों के सर्वोत्तम प्रस्फुटन को शिक्षा कहकर संबोधित किया है।महात्मा गांधी,लॉक,प्लेटो,रूसो,अरविंदो सहित सभी प्रमुख नवाचारवादी प्राच्य और प्राचीन शिक्षाशास्त्रीगण ने भी स्वयम अपने अपने मन्तव्य व्यक्त करते हुए जहां शिक्षा के मूल उद्देश्यों पर प्रकाश डाला है वहीं विद्यार्थियों में उत्तम नैतिक चारित्रिक विकास को मुक्तकंठ से महत्त्वपूर्ण मॉनते हुए इसकी अपरिहार्यता को स्वीकार की है।
समाज में उत्तरोत्तर बढ़ती चारित्रिकपतन की स्थिति ही हमारी सभी प्रकार की समस्याओं की मूल जड़ है।किंतु कदाचित इसके निराकरण हेतु कोई ठोस प्रयास किसी भी दिशा से होता हुआ नजर नहीं आता।जिससे ये यक्ष प्रश्न उठना लाजिमी है कि आखिर आज के दौर में जब हम वैज्ञानिकतापूर्ण अन्वेषी शिक्षण प्रदान करने का दम्भ भरते हैं,महंगे से महंगे संस्थानों में पैसे के बलपर प्रवेश ले सकते हैं,गांव गांव बसे भेजकर चूल्हे के अंदर से बच्चों को इकट्ठा कर विद्यालय भेज सकते हैं या मंगवा सकते हैं,नेट और सोशल मीडिया पर कुछ भी कह सकते हैं तो फिर थोड़ा सा नैतिक क्यों नहीं हो सकते?आखिर ये शिक्षा बच्चों को कहां और कैसे मिलेगी?कौन व्यवस्था करेगा अन्यथा व्यवस्था न होने पर भुगतेगा कौन और जिम्मेदार कौन होगा?विचारणीय है।
वस्तुतः आज चाहे नेताओं/मंत्रियों की बेवफाई हो,अधिकारियों की मक्कारी और अवैध उगाही हो,कर्मचारियों की कर्तव्यहीनता और घूसखोरी हो,शिक्षकों की लुप्तहोती दायित्वहीनता हो या समाज मे बढ़ती मुफ्तखोरी तथा जालसाजी हो या फिर बलात्कार,आतंकवाद,जातिवाद हो या पढेलिखों और अधिकारियों/व्यापारियों द्वारा अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजने की स्थिति हो,कदाचित सभी समस्याएं नैतिकता के पतन की ही परिणति हैं।जो ये सिद्ध करती हैं कि अनपढ़ और गंवार व्यक्ति तो सौ फीसदी देशभक्त,मातृभक्त और सच्चरित्र हो सकता है किंतु सभी उच्चशिक्षित संस्कारित नहीं हो सकते।आखिर ऐसा क्यों है?
सत्य तो ये है कि आज शैक्षिक संस्थान ज्ञान देने की बजाय सूचनाओं का सम्प्रेषण करते हुए व्यवसाय करते हैं।संस्थान अंकीय उपलब्धि का ढिंढोरा पीटकर कमाई करते हैं।अभिभावक भी जश्न मनाते हैं तथा किसी भी प्रकार से आये अच्छे अंक नौकरियों में सहायक बनते हैं।जो समाज मे विषवमन करते हैं।आज विद्यालयों में नैतिक शिक्षा एक विषय होकर भी शिक्षण का विषय नहीं है।अभिभावकों के लिए बच्चों के वास्ते समय नहीं है जिससे वे इंटरनेट आदि माध्यमों से मनचाहा लगाव रखते हैं।पाठ्यक्रम भी बोगस और बकवास है।अन्ततः कहा जा सकता है कि परिवार भी बच्चों में शुरुआती संस्कार देने में असफल रहे हैं।जिससे आज अराजकता की स्थिति उत्तपन्न हो गयी है।
शिक्षा जगत के लिए कोरोनाकाल भी किसी त्रासदी से कम नहीं कहा जा सकता।इसके चलते जहाँ आपाधापी में छोटे-बड़े सभी संस्थानों में ऑनलाइन शिक्षण पद्धति को बढ़ावा मिलने का नवाचार शुरू किया गया वहीं अल्प विद्या भयंकरी जैसी सूक्ति भी चरितार्थ होती हुई दिखने लगी है।कोरोना काल में विद्यार्थियों द्वारा मोबाइल का सतत प्रयोग एकओर जहाँ उन्हें अपने परिवार और साथियों से अलग रहने को विवश किया वहीं इंटरनेट पर मौजूद अनेक आपत्तिजनक कंटेंटों की सर्चिंग करते हुए विद्यार्थियों में इसका व्यसन भी बढ़ता हुआ परिलक्षित होता है।कहना गलत नहीं होगा कि कोरोनाकाल के उपरांत विद्यालयों के खुलने पर आयेदिन अनुशासनहीनता की बढ़ती घटनाएं शिक्षकों व विद्यालय प्रशासन के लिए जबरदस्त चुनौती बनती जा रही हैं।लिहाजा मोबाइल की सहायता से पढाई की आड़ विद्यार्थियों के चारित्रिक हनन करने का एक अत्यंत सहज, सरल और महाघातक परिस्थिति है।जिसपर कोई भी जिम्मेदार बोलने को तैयार नहीं दिखता।
इसप्रकार बढ़ते विद्यालयों की संख्या के बावजूद विद्यार्थियों के अंदर घटते संस्कार महज शिक्षा व्यवस्था ही नहीं अपितु राष्ट्र के लिए भी एक सोचनीय समस्या है।जिसपर चिंतन,मनन और तदनुसार उचित नीति निर्माण आज वक्त की नजाकत तथा समय की मांग है।