अंबेडकर नगर। धार्मिक अनुष्ठानों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्तिक मास में जहाँ धनतेरस,दीपावली,गोबर्धनपूजा और यम द्वितीया का विशेष स्थान है,वहीं पुत्र प्रदायी सूर्य और षष्ठी का संयुक्त पर्व,डाला छठ, जोकि पूर्वांचल विशेषकर बिहार,छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश सहित देश के विभिन्न भागों में मनाया जाता है,भी दिनोंदिन और भी प्रचलित होता जा रहा है।वास्तव में पुत्रहीनों को पुत्र प्रदायक और जीवित संतानों की रक्षा के निमित्त ऊर्जा अर्थात उनके आरोग्य और समृद्धि को ध्यान में रखकर किया जाने वाला यह व्रत माता कात्यायनी और सूर्य का एकसाथ आह्वाहन किया जाने वाला पर्व है।
डाला छठ को लेकर जहाँ तक पौराणिक मान्यता का प्रश्न है तो ब्रह्मवैवर्त पुराण,स्कंध पुराण तथा भविष्य पुराण में इस पर्व का उल्लेख मिलता है।ब्रह्मवैवर्त पुराण में सूर्य और षष्ठी के इस संयुक्त व्रत को पुत्रों का रक्षक तथा पुत्रहीनों को पुत्र प्रदायक कहा गया है।पुत्रदाsहम अपुत्राय रक्षामि च दिने दिने से स्प्ष्ट रूप से इस पर्व को पुत्रदायी और पुत्रों का रक्षक बताया गया है।प्रचलित मान्यताओं के अनुसार कार्तिक माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को एक बेला भोजन करते हुए सात्विक भाव से षष्ठी तिथि को निराहार रहकर पवित्र नदियों,सरोवरों इत्यादि धार्मिक स्थलों पर लाल पुष्पों, लाल चंदन का प्रयोग करते हुए यथोचित ॐ घृणि:सूर्याय नमः या फिर अपने ज्ञान के अनुसार सूर्यदेव का स्मरण करते हुए अस्ताचल को जा रहे भगवान सूर्य को जल में खड़े होकर अर्घ्य प्रदान किया जाता है।जबकि सप्तमी तिथि को ब्रह्मबेला में पूर्व दिशा में मुंह करते हुए उदय होते भगवान भाष्कर को जल में खड़े होकर अर्घ्य दिया जाता है।इस व्रत में पांच प्रकार के फल तथा गुड़,घी,आटा, सौंफ और मेवा मिश्रित ठेकुआ इत्यादि बांस की बनी दौरी(डलिया) में रखकर पुरुष को अपने सिर पर रखकर पवित्र सरोवरों,नदियों तक ले जाना होता है।यही कारण है कि बांस की डलिया के कारण इसे डाला छठ भी कहते हैं।
वस्तुतः डाला छठ आदिशक्ति माता कात्यायनी,जोकि नौ दुर्गा में एक और षष्ठी तिथि की स्वामिनी और भगवान सूर्य जोकि सप्तमी तिथि से स्वामी हैं,का संयुक्त पर्व है।माता कात्यायनी को संतान रक्षिका कहा जाता है।यही कारण है कि प्रसूतिका को प्रथान स्थान षष्ठी तिथि को ही कराने का विधान है।इस पर्व का सम्बन्ध जगदीश्वर महादेवपुत्र कार्तिकेय व उनकी पत्नी षष्ठी से भी है।दएव सेनापति कार्तिकेय को अभयदेव भी कहा जाता है।जिनकी उपासना से सुख और आरोग्य प्राप्त होते हैं।
यकीनन डाला छठ अब मूलतः बिहार का त्यौहार होकर भी पूरे भारत सहित यत्र तत्र सर्वत्र प्रसरित भारतवंशियों का प्रिय पर्व होता जा रहा है।तीन दिनों तक चलने वाले इस पर्व की समाप्ति सूर्य की तिथि सप्तमी की सन्ध्या षष्ठी देवी की मिट्टी की प्रतिमा की पूजा अर्चना के साथ समाप्त होती है।यह पर्व उद्योग और व्यापार जगत की मंदी बको समाप्त कर उन्हें भी नव ऊर्जा प्रदान करता है।जिससे जहाँ देश का आर्थिक ढांचा बढ़त को प्राप्त होता है वहीं भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य की एक झलक भी देखने को मिलती है।