Saturday, November 23, 2024
HomeAyodhya/Ambedkar Nagarअम्बेडकर नगरअस्तित्व को तलाशती कांग्रेस और राहुल गांधी–उदय राज मिश्रा

अस्तित्व को तलाशती कांग्रेस और राहुल गांधी–उदय राज मिश्रा

Ayodhya Samachar

अंबेडकर नगर। किसी शायर ने कहा है कि-

“मीलों तक चलता रहा,

यूँ ही मोहब्बत का कारवाँ।

ना लैला ऊँट से उतरी,

ना मजनुओं ने पीछा छोड़ा।।”

    कदाचित शायर का यह कथन देश की जंगे आज़ादी की गवाह और देश के हरेक जिले तक विस्तीर्ण भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस पार्टी पर शतप्रतिशत सही ठहरते हुए पूर्णत:चरितार्थ करता हुआ परिलक्षित हो रहा है,जोकि न तो काँग्रेस के लिए हितकारी है और न लोकतान्त्रिक व्यवस्था में देश ही के प्रति लाभप्रद है।अलबत्ता कांग्रेस के मौजूदा सुरतेहालों पर गौर फरमाने पर इस साफ जाहिर होता है कि कभी सबकी रही कांग्रेस आज राहुल गांधी के हजारों मील भारत जोड़ो यात्रा के बावजूद पूर्वोत्तर के तीन सूबों में हुए हालिया विधानसभा चुनावों  के परिणाम सामने आने पर अपने वजूद और अस्तित्व को तलाशती हुई दिनोंदिन अपनी बर्बादियों पर न तो हँस सकती है और न रो सकती है,जिसकी जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि खुद आज की कांग्रेस और उसके नेता ही हैं।हाँ, अध्यक्ष न होते हुए भी स्वयम राहुल गांधी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

    यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि 1885 में अपने गठन से लेकर विश्वपटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस,पट्टाभिसीतारमैया, देशबंधु चितरंजन दास, पण्डित नेहरू,लालबहादुर शास्त्री,इंदिरागांधी,शंकर दयाल शर्मा,राजीव गांधी,नरसिम्हाराव,प्रणव मुखर्जी जैसे अनेकों महान शख्शियत काँग्रेस की ही उपज और भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैं किन्तु बावजूद इसके आज वही कांग्रेस लथर पथर,बेबस,लाचार औरकि पंगु बनकर सालों बाद येनकेन खड़गे जैसे जुझारू नेता को नेतृत्व सौंपने में सफल तो  रही है,किन्तु ये गम्भीर चिंतन और मन्थन का विषय होने के साथ ही साथ   देश के लिए किसी त्रासदी से कमतर भी नहीं है कि आखिर दिनोंदिन कांग्रेस से जनमानस का कमतर होते विश्वास के लिए जिम्मेदार कौन है?क्या खड़गे को बलि का बकरा उसीतरह बनना पड़ेगा जैसा कि सीताराम केशरी के साथ हुआ था याकि कांग्रेस के अंदर से ही एक ऐसे वर्ग का उदय होगा जिसके तेवर आक्रामक व भाषा संयमित होगी।फिलहाल इसकी संभावना कम ही लगती है।अलबत्ता हार का ठीकरा क्षेत्रीय नेताओं के सिर फोड़कर शोक मनाने से ज्यादा आजकल कांग्रेस कर भी तो नहीं सकती है।

    वास्तव में 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी की उनके ही रक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद राजीव गांधी की ताजपोशी होना कांग्रेस में चाटुकारों का दौर कहा जा सकता है।यह यथार्थ सत्य है कि कभी पायलट रहे राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया राजनीति में आने से परहेज करते थे किंतु इंदिरागांधी की हत्या के पश्चात देश की तात्कालिक परिस्थितियों के मद्देनजर राजीव गांधी को अकारण ही राजनीति में आना ही नहीं पड़ा अपितु प्रधानमंत्री का दायित्व भी निर्वहन करना पड़ा।यहाँ यह बात दीगर है कि राजीव गांधी का  अपरिपक्व नेतृत्व अहमद पटेल,गुलाम नवी आज़ाद जैसे अनेक दरबारियों को खूब मलाई खाने का मुफ़ीम जरिया भी बना,जोकि आजतक बदस्तूर जारी है।

   प्रश्न जहाँ कांग्रेस की दिनोंदिन डूबती नौका है तो वहीं असल समस्या नेतृत्व को अक्षम और कमजोर देखते हुए मलाई खाने के आदी चाटुकारों की बड़ी फौज भी है।जिनकी एक झलक मेघालय सहित तीन राज्यों में हुए हालिया विधानसभाई चुनावों के उपरांत कांग्रेस की समीक्षा बैठक में फिर से देखने को मिली।कहना गलत नहीं होगा कि जब देश का बच्चा बच्चा कह रहा है कि कांग्रेस के पास ठोस नीति और कारगर नेतृत्व का अभाव है तो यह सच्चाई आखिर जिम्मेदार पदाधिकारीगण समीक्षा बैठक में आखिर क्यों नहीं कहते?क्या सच को सच कहने की कांग्रेसियों की आदत नहीं है या फिर चाटुकारों में इतनी हिम्मत नहीं रह गयी है कि वे गांधी परिवार की जेबी बनी कांग्रेस में कुछ उल्टा बोलने का साहस दिखा सकें।यही बड़ी वजह थी कि समीक्षा बैठक में सोनिया गांधी द्वारा स्वयम को सन्यास लेने की बात कहना और राहुल सहित प्रियंका की गैरहाजिरी का विरोध करने के बजाय सभी नेतागण मुक्तस्वर से उन्हीं का गुणगान करने लगे।जिससे यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया कि आखिर कांग्रेस की घटिया स्थिति और लचर प्रदर्शन हेतु जिम्मेदार और जबाबदेह कौन है?

   दरअसल जंगे आज़ादी की गवाह कांग्रेस आज मतदाताओं की नकारात्मकता से नहीं अपितु अपने ही उलजुलूल कार्यों से हाशिये पर आ खड़ी है।कभी जन जन की रही कांग्रेस आज एक परिवार की होकर रह गयी है।लोगों के मन मानस में आजतक चाचा केशरी और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के प्रति गांधी परिवार की घृणा और किये गए तिरस्कार,कश्मीर के प्रति दृष्टिकोण,तुष्टीकरण की राजनीति और राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी की नकारात्मक छवि ऐसे बस चुकी है जिसे अब राहुल,सोनिया और प्रियंका के बलबूते दूर कर पाना सम्भव नहीं दिखता।यह देश और लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है कि कांग्रेस नेतृत्व 2022 तक भाजपा के देशभर में 1373 विधायकों की तुलना में 692 विधायक होने पर भी मजबूत विपक्ष नहीं बन पा रही है।कदाचित यह सब कमजोर नेतृत्व के ही चलते हो रहा है,यही सत्य कांग्रेस नेतृत्व जानते हुए भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है।जिससे आनेवाले दिन और भी त्रासदपूर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं।

    देखा जाय तो राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा स्वस्थ राजनीति के दृष्टिकोण से एक बहुत ही सकारात्मक कदम था किंतु ब्रिटेन जाकर जिस तरह से उन्होंने वक्तव्य दिए और भाजपा विरोध के नामपर पर भारत का विरोध कर बैठे,उससे उनकी यात्रा का पुण्यफल निष्फल रहा।जिसकी परिणति पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनावों से भी देखी जा सकती है।इतना ही नहीं अगले वर्ष देश के चार महत्त्वपूर्ण और बड़े राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव भी होने वाले हैं तो ताजे वाकयों से इतना अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है।फिर भी राहुल गांधी की सेहत पर कोई फर्क पड़ती हुई दिखती नहीं है।कदाचित कांग्रेस के आलाकमान की यही विचलन भरी मानसिक स्थिति ही कांग्रेस की लुटिया डुबोने के लिए काफी है।

Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar
Ayodhya Samachar

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments