अंबेडकर नगर। यूँ तो विषपान शब्द ही इहलीला के खात्मे का द्योतक औरकि एक अनुचित कृत्य है किंतु कदाचित जब प्रश्न मान की रक्षा और लोकरंजन का हो तथा अन्य उपाय असफल से हों तो कभी कभी परिस्थिति विशेषवश किया गया विषपान भी अमरत्व को प्रदान करता है,चाहे भले ही उसे द्वेषवश या अन्यान्य कारणों से दिया या पिया गया हो।द्वेषवश विषपान से अमरत्व की प्राप्ति जहाँ मीरा को निष्काम प्रेम की पराकाष्ठा का द्योतक है तो लोककल्याण हेतु सदाशिव द्वारा किया गया विषपान सारे संसार के लिए सोद्देश्य उदाहरण है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार समुद्रमंथन के फलस्वरूप निकले चौदह रत्नों में एक हलाहल जब सृष्टि के विनाश का हेतु बनने लगा तो देवों और दनुजों दोनों के ही उपास्य आदिदेव महादेव ने जगकल्याण हेतु महाविष का पान करते हुए उसे अपने कंठ में धारण किया।जिसके चलते उन्हें जगदीश कहा जाता है और साथ-साथ कंठ नीला पड़ जाने के कारण नीलकंठ शब्द भी उनका सामासिक पर्याय बना है।कहा गया है कि-
“मान सहित विषपान करि,शंभु भये जगदीश।
बिना मान अमृत पिये,राहु कटायो शीश।।”
इसीतरह विश्व इतिहास में महान दार्शनिक और शिक्षक सुकरात को भी अपनी शिक्षा बन्द न करने के कारण तत्कालीन राजा द्वारा विषपान का दंड दिया गया था किंतु सुकरात मरकर भी अमर हो गया।सुकरात का अंतिम कहा गया वाक्य “सत्य परेशान हो सकता है किंतु पराजित नहीं” विश्वभर में आज भी सत्य की पताका फहराते हुए झंडा गाड़ता है।इसीतरह कृष्णप्रेम में स्वयम की सुधि खोकर तल्लीन मीराबाई को भी विषपान कराया गया था किंतु प्रभु कृपा से मीराबाई का बाल भी बांका नहीं हुआ।महात्मा रहीमदास जी ने भी मान की रक्षा हेतु विषपान को श्रेयस्कर बताया है।उन्होंने लिखा है-
“अमिय पियावत मान बिनु,रहिमन मोहिं न सुहाय।
मान सहित मरिबो भलो,जो विष देत बुलाय।।”
इसप्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्प्ष्ट होता है कि मान अर्थात प्रतिष्ठा या सम्मान ही मानवमात्र के लिए अमृत तथा मानहानि या अपमान तथा लोकनिंदा ही सबसे बड़ा विष है।अतएव विद्वान अपयश लेकर जीवित रहने से बेहतर यश सहित विषपान करते हुए इहलीला समाप्ति को तरजीह देते हैं।इसीप्रकार वर्तमान दौर में किसानों के हित के लिए बनाए गए औरकि विपक्ष द्वारा हानिकारक बताये गए तीनों विवादित कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा भी लोकरंजन हेतु प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किया गया विषपान ही है,जो भविष्य में उन्हें अमरत्व को प्रदान करने वाला साबित होगा।इसमें कोई संदेह नहीं है।
वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य के शरीर में छह महाशत्रु सदैव जागृत या फिर सुशुप्तावस्था में विराजमान रहते हैं।तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं कि-
“तब लगि बसहिं हृदय खल नाना।
लोभ क्रोध मत्सर मद माना।।”
इसके अतिरिक्त मानव का ईर्ष्यालु स्वभाववश दूसरों की निंदा करना भी छठवां सबसे बड़ा दोष औरकि महाविषतुल्य ही है।महाविषतुल्य इसलिए कि इन छहो को अन्यत्र कहीं से लाना या लेना नहीं पड़ता अपितु ये सदैव देह में ही घर बनाकर रहते हैं।इन शत्रुओं का शमन दमन और उन्मूलन करने हेतु जो प्रत्युत्तर में उपाय किये जाते हैं,वे इन दुर्गुणों के लिये विष तो मानव के लिए अमृत का कार्य करते हैं।जिससे मानव जग में प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हुए अमरत्व को प्राप्त करता है।
विष के समान ही मानव शरीर में विद्यमान अदृश्य शत्रुओं का नाश करने हेतु इन छहो का पान करना ही उचित होता है।अर्थात क्रोधम अक्रोधेन जयेत,असाधुम साधुना जयेत।इसप्रकार सहनशील बनकर प्रतिक्रियात्मक हिंसक आचरण के बजाय इन शत्रुवत गरलों का पान करना ही स्वयम को श्रेष्ठ साबित करना कहलाता है।संस्कृत साहित्य में भी कहा गया है कि-
“सहसा न विदधीत क्रियाम,अविवेक:परम आपदां पदम्”अर्थात बिना सोचे विचारे कभी भी तात्कालिक प्रतिक्रियावादी नहीं होना चाहिए अन्यथा परिस्थितियां ही नियंत्रण से बाहर होकर जीवन को विषतुल्य बना देती हैं,तब जीवन कठिन बन जाता है।
सारसंक्षेप में यहाँ इतना ही कहना प्रासङ्गिक होगा कि कुप्रवृत्तियाँ ही मानव के लिये विष हैं।इनका चित्तवृत्ति के निरोध और सम्यक आचरण द्वारा शमन करते हुए प्रतिक्रियावादी न बनना ही विषपान है,जो कालांतर में व्यक्तित्व में निखार और जीवन को अमरत्व प्रदान करता है।जीवन बड़ा होने से कोई महान नहीं अपितु कर्म और आचरण बड़ा होने से व्यक्ति महान होता है।महानता की प्राप्ति ही जीवनमुक्ति तथा विदेह अमरत्व है।