अम्बेडकर नगर। विश्व की सभी संस्कृतियों में सबसे प्राचीन किंतु आधुनिक खगोलशास्त्रियों,भूगोलवेत्ताओं और वैज्ञानिकों के लिए भी रहस्य,कौतूहल और जिज्ञासा बनकर इसरो से नासा तक के लिए अनुसंधान और अध्ययन की विषय बनी भारतीय प्राच्य विद्या,वांग्मय, ज्योतिषशास्त्र जितनी सटीक तरीके से ग्रहों,नक्षत्रों, आकाशीय घटनाओं आदि की व्याख्या करती है,उतनी वस्तुनिष्टता और शुद्धता आज का यांत्रिक युग में भी अकल्पनीय है।भारतीय संस्कृति का प्रत्येक शब्द न केवल ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं का प्रतीक है अपितु संतों,ऋषियों,गुरुओं,महात्माओं और शंकराचार्यों आदि आदरणीय लोगों के नाम से पूर्व 108 लिखने की जो आदि परम्परा करोड़ों वर्ष पूर्व स्थापित की गयी है,वह एक साथ आज भी अंतरिक्षविज्ञानियों एवं भूगोलवेत्ताओं के लिए शोध का विषय है।
भारतीय सनातन संस्कृति में श्रद्धेय लोगों,गुरुओं,ऋषियों,संतों,महात्माओं और शंकराचार्यों आदि के नामों के पूर्व प्रायः श्री श्री 108 या 1008 लिखने की परम्परा है। जप माले में भी मनकों की संख्या या तो 108 होती है या फिर 27 या 54 मनके होते हैं,जोकि गणितीय दृष्टि से 108 के ही गुणक होते हैं।जिससे प्रायः यह उत्कंठा और जिज्ञासा होती है कि 108 की संख्या में ऐसी क्या विचित्रता या विशेषता है,जिसके चलते इसे आदरणीय लोगों के नामों से पूर्व लगाया ही नहीं जाता अपितु जप माला में मनकों की संख्या भी 108 ही रखी जाती है।अतएव इसकी धार्मिक,वैज्ञानिक और शास्त्रीय रीतियों से व्याख्या तथा विवेचन समीचीन लगता है।
भारतीय शास्त्रों और वांग्मय का गहन अध्ययन करने से पता चलता है कि हमारे प्राचीन ऋषि,महर्षि और उनका अतीन्द्रिय ज्ञान आज के वैज्ञानिक ज्ञान के स्तर से बहुत उच्च कोटि का था।जिसके मूर्त प्रमाण हमारे प्राचीन ग्रंथ स्वयं अपने आप में हैं।भारतीय मनीषियों ने ज्योतिषीय गणनाओं के लिए पृथ्वी,सूर्य और चंद्रमा की गतियों को आधार मानते हुए बिल्कुल सटीक गणनाएं की हैं।हमारे पुराणों,समुद्रशास्त्र और अन्य ग्रंथों में उल्लिखित है कि पृथ्वी और सूर्य के बीच की जो दूरी है,उसमें सूर्य के व्यास से भाग देने पर भागफल 108 आता है।इसी तरह पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की जो दूरी है,उसमें चंद्रमा के व्यास से भाग देने पर भी भगफल 108 ही आता है।इसी प्रकार सूर्य का व्यास भी पृथ्वी के व्यास का 108 गुना ही होता है।इन्हीं गणनाओं के आधार पर भी 108 की संख्या को वैदिक गणित और सनातन संस्कृति में वैज्ञानिकता के पुट के साथ धार्मिक प्रयोजनों से युज्य करते हुए गुरुओं,ऋषियों,संतों,महात्माओं आदि के नामों से पूर्व लिखने का विधान स्थापित करते हुए उनकी गरिमा को गुरुत्व प्रदान करने का कार्य किया है,जो आजतक अनवरत जारी है।
108 की संख्या धार्मिक अनुष्ठानों की दृष्टि से भी अत्यंत पवित्र संख्या मानी जाती है। जप माले में भी सुमेरु गुरिया के साथ 108 मनके होते हैं।जिससे जप करने वाला साधक किसी भी मंत्र का जाप कमसे कम 108 बार अवश्य करता है।अब प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर जपों की न्यूनतम संख्या 108 ही क्यों होती है?इसके पीछे क्या रहस्य है?तो भारतीय पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मनुष्य जीवन में 36 प्रकारों के हिंसात्मक पापों को मनसा,वाचा,कर्मणा अर्थात तीन प्रकारों से करता है।ये पाप जाने अनजाने भी होते हैं।जिससे 36 प्रकार के हिंसात्मक पापों का गुणा 3 प्रकार(मनसा,वाचा,कर्मणा) से करने पर गुणनफल 108 आता है।यही कारण है कि किसी भी मंत्र का जप कम से कम 108 बार करने का विधान सनातन धर्म में प्रख्यापित है। जप माले में 108 मनकों के अलावा एक अन्य गुरिया भी होती है।जिसे मेरू कहते हैं।यह साक्षात् गणेश जी का प्रतीक होती है।जिसका अभिप्राय यह होता है कि किसी भी मंत्र का जप करने से पूर्व गणेश जी का नाम स्मरण अवश्य करते हुए जप करने से सिद्धि मिलती है।पाप कर्म संस्कार की निवृत्ति हेतु कमसे कम 108 बार जप का विधान इसी आधार पर किया गया है।
इसी तरह 108 की संख्या का ज्योतिषशास्त्र और नक्षत्र विज्ञान ही नहीं खगोल शास्त्र से भी अन्योनाश्रित संबंध है।अंतरिक्ष विज्ञान भी प्राचीन भारतीय नक्षत्र विज्ञान के इस तथ्य की पुष्टि करता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वरूप 108 अंकीय है,जो अंतरिक्ष में विद्यमान 27 तारामंडलों और उनकी चार चार दिशाओं का गुणनफल मात्र ही है।आयुर्वेद भी भारतीय ज्योतिष शास्त्र का अनुसरण करते हुए इस बात की पुष्टि करता है कि मानव शरीर में कुल 108 प्रेशर प्वाइंट होते हैं।जिनको दबाने से शरीर के सभी प्रकार के रोगों का नाश होता है।आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी भारतीय अंक 108 की महत्ता का कायल है।आधुनिक चिकित्साशास्त्र के अनुसार मानव शरीर अधिकतम 108 डिग्री फारेनहाइट तक ही ताप सहन कर सकता है,उसके उपरांत मृत्यु निश्चित होती है।
108 को ब्रह्म का भी स्वरूप माना जाता है।जिसमें ब,र,ह,म चार वर्णों के संयोग से ब्रह्म शब्द की निष्पत्ति मानी जाती है।ध्वनि शास्त्रियों के अनुसार भी ब्रह्म शब्द में 16 स्वर और 38 व्यंजनों की मात्राएं मिलकर 54 का योग बनाती हैं,जो नाभि से आरंभ होकर होंठों तक आती हैं।जिन्हें बोलने पर एकबार चढ़ाव और दूसरी बार उतार होता है।जिससे 108 की संख्या बनती है।यह संख्या सूक्ष्म स्वरूप में 108 तन्मात्राओं के प्रस्फुटन का प्रतीक मानी जाती है।इसी सिद्धांत के आधार पर ही जनेऊ की परिधि को चार अंगुलियों के 27 गुणे अर्थात 108 अंगुल का ही बनाया जाता है।
भारतीय धर्मशास्त्रों में 108 की संख्या को ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं और प्रकृति तथा पुरुष के दिव्य संबंधों का प्रतीक माना जाता है।इसके अतिरिक्त प्रसन्न और क्रोधित दोनों ही मुद्राओं में सदाशिव द्वारा तांडव की कुल 108 मुद्राओं के आधार पर नृत्य संगीत में आज भी 108 मुद्राओं का ही विधान है।देवी पुराण के अनुसार धरती पर जहां शक्ति पीठों की संख्या 108 है तो वहीं उपनिषदों की भी संख्या 108 है।एक सौ आठ का अंकीय जोड़ 9 होता है।इसी आधार पर पुराणों की भी व्यवस्था 9 के गुणनफल में ही है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय सनातन हिन्दू ही 108 की संख्या को अद्वितीय और परम पुनीत मानते हैं।बौद्ध पंथ में भी 108 प्रकार की भावनाओं का वर्णन मिलता है।यही कारण है कि प्राचीन बौद्ध मंदिरों में 108 सीढ़ियां ही होती थीं तथा बौद्ध मंदिरों में 108 बार घंटियों को बजाने की परम्परा है।
108 का सीधा संबंध भौतिक विज्ञान से भी है।सौर दिवस और माध्य सौर दिवस के अनुसार मनुष्य दिनभर में 21600 बार सांस लेता है।जिसमें 10800 बार वह जागते हुए अपने दायित्वों का निर्वाहन करते हुए और 10800 बार शयन करते हुए लेता है।यही कारण है कि रात में शयन से पूर्व हरिनाम स्मरण की परम्परा है।जिससे पूरी रात में ली गई सांसों की गिनती प्रभु नाम स्मरण में गिनी जाती है।आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान भी भारतीय सनातन संस्कृति का अनुसरण करता है।ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य वर्ष में दो बार कलाएं बदलता है।जिन्हें उत्तरायण और दक्षिणायन कहते हैं।प्रत्येक स्थिति अर्थात उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों में ही सूर्य 108000 बार कलाएं बदलता है,जोकि 108 की गुणन में ही हैं। पंचांग के अनुसार भी 12राशियों में 9 ग्रहों के विचरण से 108 का पुनीत संयोग बनता है। इस प्रकार यह कहना सर्वथा वैज्ञानिक है कि 108 का अंक पूरी तरह से अदभुत और मांगलिक है।