Saturday, September 21, 2024
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मॉलों को मुँह चिढ़ाते प्राइवेट विद्यालय– उदय राज मिश्रा

अंबेकर नगर। मुंडकोपनिषद में विद्या को जहाँ “सा विद्या या विमुक्तये” और सुभाषितरत्नानि में “विद्या धनम सर्वधनम प्रधानम” कहकर ज्ञान की प्रधानता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है वहीं शिक्षा को मानव के समाजीकरण,अनुकूलन और जीवनयापन का मुख्य साधन भी माना जाता है किंतु आज के परिवेश में जबकि शिक्षा का बाजारीकरण अपने चरम पर औरकि शिक्षा गरीबों तथा मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से दूर होती जा रही है तो यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या आज के प्राइवेट संस्थानों में महंगे दामों पर बिकने वाली शिक्षा समतामूलक समाज की स्थापना करने में सहायक है याकि इन संस्थानों द्वारा आर्थिक विभेद के आधार पर एक अलग प्रकार के समाज को बढ़ावा दिया जा रहा है जो न तो समाज के लिये उचित जान पड़ता है और न ही राष्ट्रीय की एकता और अखंडता के लिये ही प्रासङ्गिक लगता है।सच तो यह है कि शहरों कस्बों से गांवों तक कुकुरमुत्तों की तरह दिनोंदिन फैलते ये अंग्रेज़ी प्राइवेट विद्यालय औद्योगिक घरानों द्वारा खोले गए मॉलों को मुँह चिढ़ाते हैं।जिनपर समय रहते अंकुश लगाना समय की यथार्थ मांग औरकि आवश्यकता है।

    दिलचस्प बात है कि एक देश और एक विधान होने के बावजूद भारत में आज भी न तो कोई एक एकीकृत बोर्ड है और न ही पाठ्यक्रम।जिसके चलते जहाँ प्रान्तों के अपने स्वतंत्र बोर्ड हैं तो वहीं केंद्रीय स्तर पर भी सीबीएसई व आईसीएसई जैसे अलग अलग दो बोर्ड राष्ट्रस्तर पर क्रियाशील हैं।इतना ही नहीं राज्यों में तो संस्कृत माध्यमिक शिक्षा परिषद, मदरसा शिक्षा परिषद सहित अनेकों अभिकरण ऐसे हैं जो शैक्षिक संस्थानों को मान्यता के नामपर रेवड़ियां बांटते हुए शिक्षा को गर्त में धकेलते जा रहे हैं।ध्यातव्य है कि इन संस्थानों के मानक व पाठ्यक्रम में पर्याप्त विभिन्नता होने से शिक्षा के मूल्यों व उद्देश्यों की पूर्ति कदापि सम्भव नहीं है किंतु इन सबके बावजूद जिम्मेदार तंत्रों का चुप रहना नौनिहालों के साथ अक्षम्य अपराध जैसा है।

    ज्ञातव्य है कि माध्यमिक शिक्षा परिषद 1921 के अधिनियम के अनुसार देश में आज़ादी प्राप्ति से 1987 तक कुल 4500 सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालय व इंटर कॉलेज थे।किंतु 1987 में ही पहलीबार उत्तर प्रदेश की प्रांतीय सरकार द्वार मात्र दो वर्षों के लिए स्व वित्तपोषित व्यवस्था के अंतर्गत वित्तविहीन विद्यालयों को खोलने की अनुमति प्रदान की गई।जिसके चलते प्रदेश में बड़ी संख्या में मान्यता की धारा 7क(क) के अंतर्गत विद्यालय खोले गए औरकि जिनकी  संख्या वर्तमान में 16000 से भी अधिक है।दुर्भाग्य से शिक्षा को सर्वजनसुलभ बनाने की छद्म संकल्पना को आधार मानकर खोले गए इन विद्यालयों का संचालन और प्रबंधन पहले से स्थापित सहायताप्राप्त विद्यालयों की तरह समाजसेवा न होकर शिक्षा का बाजारीकरण होने से स्थितियां आज बद से बदतर होती जा रहीं हैं।यही कारण है कि आज शिक्षा महंगी और विद्यालय शिक्षालय की जगह दुकान बनकर रह गए हैं।

      निजी संस्थान हों या अकेडमी या कोई विद्यालय सबकेसब सरकारी मान्यता की आड़ में खुलेआम सरकारी नियमों का उल्लंघन करने से कोई गुरेज नहीं करते।यहाँ विद्यार्थियों को लालच देकर येनकेन प्रवेश दिलवाकर उनका मानसिक आर्थिक व शारीरिक शोषण होना आम बात है।आज इन विद्यालयों में सरकार द्वारा निर्धारित पुस्तकों से इतर पुस्तकें लगाई जाती हैं,जोकि प्राइवेट प्रकाशकों द्वारा छापकर भारी कमीशन पर विद्यालयों में बेंचीं जाती हैं।न केवल सिर्फ किताबें अपितु बेल्ट,टाई, जूते, मोजे,कॉपी,कलम,रबर,मिटौना, बिस्कुट,नमकीन,पापड़ और यहांतक कि कपड़े भी आज विद्यालयों में मिलते हैं।दिलचस्प बात यह है कि प्रत्येक विद्यालय अपने यहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थियों की जो ड्रेस लगाता है वो न तो किसी अन्य विदयालय में चलती और और न कहीं रेडीमेड मिलती है।यही कारण है कि अभिभावक यहाँ ठगाने के लिए विवश और मजबूर होते हैं।कहना अनुचित नहीं होगा कि प्राइवेट संस्थानों की ऊंची ऊंची बिल्डिंगें,बस,टेम्पो और गाड़ियां इन्हीं गरीब व मध्यमवर्गीय अभिभावकों की जेब काटकर बनाई व मंगाई जाती हैं जबकि यहां का शिक्षक दीन हीन निरीह बना दिनरात शोषण का शिकार हो कुढ़ता रहता है।

     प्राइवेट संस्थान किसी शातिर शिकारी से भी तेज होते हैं।एक शिक्षा सत्र की समाप्ति के साथ ही ये अपनी महिला शिक्षिकाओं व स्टाफ को सुबह से शाम तक प्रचार व जनसम्पर्क के नामपर गांवों व कस्बों में भेजते रहते हैं।जहाँ बच्चों को विमान हाइजैक करने की तरह मानो अपहरण करके अपने यहां प्रवेश लेने का अनेकों प्रलोभन भी देते हैं किंतु जब इन बच्चों का प्रवेश हो जाता है तब इनके अभिभावकों के पास लुटने के सिवा और कोई चारा नहीं होता।दुर्भाग्य से इन मुद्दों पर जनप्रतिनिधि मौन तथा अधिकारी कुछ कहने से बचते हैं।जिसके चलते आजकल इन विद्यालयों की पौ बारह है औरकि ये मनमाने तौरपर शुल्क उगाही कर रहे हैं।कदाचित यही कारण है कि प्राइवेट विद्यालयों में अंग्रेज़ी मीडियम नर्सरी कक्षा की फीस महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के अंडर ग्रैजुएट कार्यक्रमों से भी अधिक है।जिसे चुकाने के लिये अभिभावकों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।

Ayodhya Samachar

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