अंबेडकर नगर। साधारणतः शब्दकोश में दया और करुणा परस्पर पर्यायवाची दिखाई देते हैं औरकि एक से बढ़कर एक विद्वान भी उन दोनों शब्दों का एक सा प्रयोग करते हुए दिखाई भी पड़ते हैं।यही कारण है कि दया और करुणा के मध्य मूलभूत अंतर को लेकर बड़ी भ्रांति पैदा होती है।यद्यपि की पुरातन कवियों व साहित्यकारों ने शब्दों का चयन करते समय इन दोनों शब्दों के विभेद को बड़ी चतुराई से व्यवहृत किया है तथापि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पुनः इसकी विशद व्याख्या समीचीन दिखती है।
वस्तुतः दया और करुणा दोनों शब्दों में जमीन-आसमान जितना अंतर है,जिसे ज्ञानीजन ही समझते हैं।कृष्णभक्ति शाखा के श्रेष्ठकवि नरोत्तमदास ने भिक्षुक अवस्था में द्वारिका पधारे श्रीकृष्ण के बालसखा सुदामा की स्थिति और दीनदशा को देखने पर जो वर्णन किया है,उस प्रसंग में श्रीकृष्ण को दयावान की बजाय करुणानिधि कहकर संबोधित किया है।यथा-
“देखि सुदामा की दीनदशा,करुणा करिके करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोये।।”
उपर्युक्त वर्णन से मन मे यह शंका होती है कि आखिर नरोत्तमदास ने श्रीकृष्ण के लिए करुणानिधि की जगह दयानिधि का प्रयोग क्यों नहीं किया?आखिर इसका रहस्यभेद क्या है?यह विचारणीय है।
करुणा को दया से श्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हुए गोस्वामी तुलसीदास भी सीता स्वयम्बर के समय उपवन में पुष्पचयन हेतु गयी जनकपुत्री को माता गौरी ने मनोवांछित कामना की पूर्ति का जो आशीर्वाद दिया है,उसमें भी श्रीराम को करुनानिधान कहा गया है।यथा-
“मन जाहिं राच्यो मिलहि सो वर सनज सुंदर सांवरो।
करुनानिधान सुजान शील सनेह जानत रावरो।।”
उपर्युक्त दृष्टांतों से स्प्ष्ट है कि जो भाव करुणा में है,वह दया में नहीं है।अतएव दोनों में वास्तविक भेद क्या है और किसप्रकार विचारों की निष्पत्ति इनके द्वारा होती है,यह मनीषियों के चिंतन और मनन का विषय तथा सामान्य लोगों के लिए ज्ञानपरक है।
वास्तविक रूप में यदि मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो दया और करुणा एक न होकर परस्पर भिन्न हैं।दोनों में बुनियादी फर्क है।दया का अर्थ है,परिस्थितिजन्य और करुणा का अर्थ है मनःस्थितिजन्य।करुणा का बाह्य परिस्थितियों से कोई सरोकार नहीं होता है।करुणावान व्यक्ति चाहे सभा में रहे या वन में अकेले रहे,वह जहाँ भी रहेगा उसके ह्रदय से करुणा अजस्र भाव से बहती रहेगी।करुणा निर्जन में खिले उस सुगंधित पुष्प की खुशबू की तरह है जो राह पर निकलने वाले यात्रियों को देखकर नहीं फैलती।राहगीर जाये या न जाये सुगंध सर्वत्र निर्जन प्रदेशों को सुगंधित करती रहती है।फूल की सुगंध को राह से निकलने वाले पथिक से कोई लेना देना नहीं होता है।इसीतरह करुणा का भाव सुगंध की भांति सदैव अन्तस् में प्रवाहित होता रहता है।इसप्रकार करुणा को व्यक्ति की अन्तस् चेतना का स्रोत कहा जाना हरप्रकार से उपयुक्त है।इस लिहाज से बुद्ध, महावीर,राम,कृष्ण आदिबको दयावान कहना गलत है,वे करुणावान हैं,महाकारुणिक हैं।
दया और करुणा में अंतर समझने हेतु श्रीमद्भगवद गीता के द्वितीय अध्याय के प्रथम श्लोक का उल्लेख यहाँ पर समीचीन जान पड़ता है।इस श्लोक में युद्धक्षेत्र में अपने स्वजनों,बन्धु-बांधवों आदि को देखकर युद्ध से विरत अर्जुन की मनोदशा का वर्णन करते हुए संजय कहते हैं-
“तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्ष्णम।
विषीदंतमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।”
इस श्लोक में संजय कहते हैं कि:पूर्वोक्त प्रकार से दया से भरकर और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकग्रस्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।
ध्यातव्य है कि संजय ने अर्जुन के लिए ,दया से भरा हुआ,दया के आँसू आँख में लिए,ऐसा कहा है।संजय ने यह नहीं कहा कि करुणा से भरा हुआ।इसप्रकार सहज जिज्ञासा होती है कि आखिर संजय ने अर्जुन के लिए करुणा का प्रयोग क्यों नहीं किया?यह विचारणीय है।
यदि चिन्तन और मनन किया जाय तो मालूम पड़ता है कि दया सिर्फ उनमें उत्तपन्न होती है,जिनमें करुणा नहीं होती।दया तो बाह्य परिस्थिति के दबाव से पैदा होती है जबकि करुणा हृदय से विकास से पैदा होती है।राह में किसी घायल को देखकर जो आपमें पैदा होती है,वह दया होती है,करुणा नहीं होती है।इसीप्रकार अपने बन्धु,बांधवों को सम्मुख देखकर अर्जुन के हृदय में जो भाव पैदा हुआ है,वह दया है।यदि उसके बन्धु, बांधव नहीं होते तो क्या होता,यह चिंतनीय है।
वस्तुतः दया अहंकार को पुष्ट करते हुए भरती है जबकि करुणा अहंकार को विगलित करती है।करुणा की उत्तपत्ति उन्हीं लोगों में होती है,जिनमें अहंकार न हो।दया वैसे तो सज्जनों का माध्यम है किंतु यह अहंकार को पुष्ट करने का ही एक सशक्त माध्यम है।यथा जब कोई व्यक्ति किसी की दीनदशा को देखकर उसे दान देता है तो उसके भीतर दाता होने का जो रस उत्तपन्न होता है वह किसी भी भिखारी या गरीब की तुलना में स्वयम को श्रेष्ठ होने का होता है,देने वाले कि स्थिति में होने का होता है।ऐसी स्थिति में तत्क्षण अगर भीतर खोजा जाय तो अहंकार का स्वर बजता है।इसके विपरीत कोई करुणावान सदैव यही चाहेगा कि धरती पर कोई भी गरीब या भिखारी न रहे जबकि दयावान सदैव चाहेगा कि भिखारी रहे।इसप्रकार दानरूपी दया में भी गरीब-अमीर होने का जो भाव होता है,वही अहंकार होता है।यही कारण है कि दया पर खड़े समाज कभी भी गरीबी का उन्मूलन नहीं चाहते बल्कि उन्हें पोषित करते हैं जबकि करुणा पर खड़ा कोई समाज किसी भी स्थिति में भिखारी को बर्दाश्त नहीं करेगा,वह धरती से गरीबी का उन्मूलन चाहेगा।संस्कृत साहित्य में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जबकि राजाओं ने अपना सर्वस्व अपनी प्रजा में लुटाकर समाज से गरीबी मिटाने का प्रयास किया है।चारुदत्त की कथा भी एक कारुणिक राजा की कहानी है न कि किसी दयावान राजा का वृतांत।
गीता में अर्जुन के मन में भी जो हुआ है,वह दया है,करुणा नहीं।वह श्रीकृष्ण से कहता है कि,मुझे दया आती है।मैं ऐसा कृत्य कैसे कर सकता हूँ?कृत्य बुरा है,ऐसा नहीं।ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूँ?मैं इतना बुरा थोड़े हूँ।अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि भले ही कौरव उसे मार डालें किन्तु वह युद्ध नहीं करेगा।सत्य तो यही है भी कि अहंकार स्वयम अपने की भी बलि दे सकता है।अहंकार का आखिरी चरण शहादत ही है।प्रायः अहंकार शहीद भी होता है लेकिन शहीद होकर और भी प्रबल हो जाता है।
यदि अहंकार की दृष्टि से देखा जाय तो सज्जन और दुर्जन में कोई विशेष भेद नहीं होता है।दोनों ही एक अहंकार की धुरी पर खड़े रहते हैं।यथा गोस्वामी तुलसी ने रामचरितमानस में सज्जन प्रशंसा में लिखा है-
“संत सहहिं दुख परहित लागी।
परदुख हेतु असंत अभागी।।”
सज्जन और दुर्जन में महज इतना अंतर होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है जबकि सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयम को चोट पहुंचा सकता है।चोट पहुंचाने में कोई भेद नहीं होता।यही हालत अर्जुन की भी।रणक्षेत्र में वह शत्रुओं को मारने की बजाय स्वयम मरने को श्रेयष्कर मानने लगता है,सम्भवतः सज्जन बनने की ओर चलने को उद्यत है।
इसप्रकार कहना समीचीन होगा कि मनुष्य की फ्लिऔर सबसे गहरी बीमारी अहंकार है।और जहाँ अहंकार है,वहाँ दया,अहिंसा आदि सब झूठे हैं क्योंकि अहंकार के रहते दया,अहिंसा,शांति,कल्याण और लोकमंगल की बातें सिर्फ और सिर्फ अहंकार के आभूषण से अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।जबकि करुणा स्वयम में एक आभूषण है।