“ जानें 1857 स्वतंत्रता संग्राम में फैजाबाद को आजाद कराने वाले मौलवी अहमदुल्लाह के बारे में
“ 1857 स्वतंत्रता संग्राम में एक साल के लिए आजाद हो गया था फैजाबाद
“ मौलवी को पकडने में नाकाम अंगे्रजों ने रखा था पचास हजार का इनाम
“ 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को संगठित करने में निभाइ प्रमुख भूमिका
“ छापामार युद्धनीति से अंग्रेजों की चूले हिला दी
@ अमित मिश्र, अयोध्या समाचार
अंग्रेजी हकूमत के बारें कहा जाता था कि उसके शासन में सूरज कभी नहीं डूबता था। परन्तु जनपद फैजाबाद की धरती एक ऐसे की गाथा कहती है जिसने इसी जनपद में बिटानिया हकूमत का सूरज डुबोया ही नहीं बल्कि उसे अपने कब्जे में एक साल के लिए रखा। भारतीय स्वतंत्रता के पहले संग्राम 1857 में फैजाबाद को एक साल के लिए आजाद कराने वाले मौलवी अहमदुल्लाह को याद किए बिना फैजाबाद के लिए इस संग्राम का अतीत की यह कथा पूर्ण नही हो सकती है। मौलवी अहमदुल्लाह ने 1857 के विद्रोह को संगठित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। मौलवी ने अंग्रेजों से इतना गहरा नुक्सान पहुचा था जिसके कारण उसके उपर अंग्रेज सरकार ने 50 हजार रूपये का ईनाम भी रखा था। उनके कुशल नेतृत्व में फैजाबाद को जून 1857 से जुलाई 1858 तक अंग्रेजों की गुलामी से आजाद रहा।
मौलवी के जन्म संर्दभ में सावरकर की 1909 में प्रकाशित 1857 का भारतीय स्वतंत्र्य समर के अनुसार मौलवी का जन्म अवध के एक तालुकेदार परिवार में हुआ था। और अंग्रेजों के सामने अवध की हार से आहत होकर उन्होनें अपना सर्वस्व देश की सेवा में लगाने का संकल्प लिया । वे लोगों में धार्मिक उपदेश के साथ ही विदेशी हकूमत और शोषण के खिलाफ एकजुट होने को भी प्रचारित करते थे। वे 1856 को जब लखनऊ पहुंचे तब पुलिस ने उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रतिबंध के बावजूद जब उन्होने इस बंद नही किया तो अंग्रेजी सरकार ने उन्हें बंदी बना कर फैजाबाद जेल में बंद कर दिया। 8 जून 1857 को सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व बंगाल के बाद फैजाबाद जेल पर हमला कर सारे क्रांतिकारियों के साथ उन्हें भी छुडा लिया। 8 जून को अंग्रेजों तथा क्रांतिकारियों के मध्य सीधे मुकाबला हुआ जिसमें अंग्रेज हार गये तथा फैजाबाद को आजाद घोषित कर दिया है। और फैजाबाद जुलाई 1858 तक स्वतंत्र रहा। तथा मौलवी ने जमींदार राजा मान सिंह को फैजाबाद का प्रशासक बना दिया। इसके बाद उन्हे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी की 22 वी इन्फ्रेंट्री का प्रमुख नियुक्त किया गया। इसकेे बाद वे अपनी सेना के साथ लखनऊ के ओर बढें लखनऊ से पहले चिनहट पर हेनरी लारेन्स के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना के साथ इनका सामना हुआ जिसमें अंग्रेजों की सेना बुरी तरह से पराजित हुई। इस पराजय से अंग्रेज बुरी तरह से बौखला गये। 4 मई 1858 के मौलवी के साथ बेगम हजरत महल व नाना साहब पेशवा और दिल्ली के शहजादे फिरोज शाह बरेली पहुंचे। 5 मई को अंग्रेज सेनापति केम्पबेल ने इनको पकडने के लिए घेरा डाल दिया और बरेली से निकल कर शाहजहांपुर पर धावा बोल दिया। कैम्पबेल जब पुनः लौटा तो मौलवी ने छापामार युद्ध नीति से अवध के आस-पास के क्षेत्रों में अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। वे अवध क्षेत्र में इधर उधर धूमते थे तथा मौका पाते ही टुकडों में अंग्रेजों के ऊपर धावा बोल दिया करते थे। इनकों पकड पाने में हताश अंग्रेजी सरकार ने इनके ऊपर पचास हजार का इनाम रख दिया।
उनके ऊपर ब्रिटिश सरकार ने 50 हजार रूपये का इनाम रखा गया था जिसकी लालच में पुवायां के राजा जगन्नाथ सिंह ने इन्हें अपने घर पर आमंत्रित करके उन्हें 5 जून 1858 को अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार करवा दिया। जिसके बाद उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था।
मौलवी के बारे में तत्कालीन ब्रिटिश अफसर थाॅमस सीटन ने लिखा था
“ a man of great abilities of undaunted courage of stern determination and, by far, the best soldier among the rebels.
“ दृढ़ संकल्प तथा निडर साहस की महान क्षमताओं के साथ विद्रोहियों के बीच का सबसे अच्छा सैनिक