Monday, November 25, 2024
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लचर खुफिया तंत्र:अपराधियों की पौ बारह–उदय राज मिश्रा

Ayodhya Samachar

अंबेडकर नगर। किसी भी लोककल्याणकारी राज्य में जनहित और लोकमहत्त्व के मसलों पर विवेकपूर्ण निर्णय के साथ ही साथ सूबे में कानून का राज्य स्थापित करना भी प्रत्येक निर्वाचित सरकारों का प्रथम दायित्व होता है।जिस निमित्त सुरक्षाबलों विशेषकर राज्य पुलिस की बड़ी अहम भूमिका होती है।जिसमें खुफिया तंत्र की मजबूती जहाँ एकतरफ पुलिस को शांति स्थापना के साथ-साथ उसके इकबाल बुलंदी के लिये किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं होते वहीं अपराधियों,माफियाओं व असामाजिक तत्वों के दिलों में भय का वातावरण सृजन करने में भी पुलिस की अहम किरदार निभाती है किंतु जब खुफिया इकाइयों के लोग ही नागरिक पुलिस के नख्शेकदम पर चलते हुए सिर्फ घर बैठे ही आधी अधूरी सूचनाएं सक्षम अधिकारियों तक पहुंचाएं तो कानपुर जैसे हालात होने कोई बड़ी बात नहीं है।

   वास्तव में प्रत्यक्ष रूप में देखने पर किसी भी राज्य की आंतरिक कानून व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी राज्यों की नागरिक पुलिस की होती है,जो बाकायदा वर्दी में थानों के मार्फ़त अपने दायित्वों का सम्पादन करती है।किंतु सत्य तो यह है कि नागरिक पुलिस से इतर भी पुलिस के कई विभाग होते हैं जो यातायात और कानून व्यवस्था बनाये रखने हेतु नागरिक पुलिस से कुछ ज्यादा ही जिम्मेदार होते हैं।इन्हें स्थानीय गुप्तचर शाखा(एल आई यू),विशेष जांच दल(एस आई एस),जिला अपराध शाखा(डीसीआरबी) व अपराध अन्वेषण एवम अनुसंधान शाखा(सीबीसीआईडी) के रूप में विभागवार अपने अपने दायित्वों का सम्पादन करते हुए प्राप्त रहस्यों,खुफिया जानकारियों,आंदोलनों,प्रदर्शनों,धरनों व विभिन्न प्रकार की गतिविधियों की सूचनाएं जिलों के पुलिस कप्तान व जिलाधिकारियों को ससमय देनी होती है।जिनके आधार पर योजनाबद्ध तरीके से स्थानीय पुलिस एवम प्रशासन  कानून व्यवस्था बनाये रखने की व्यवस्था सुनिश्चित करते हैं।जिससे अमन और चैन में खलल डालने वालों के मंसूबे कभी भी कामयाब नहीं होते हैं।किंतु वर्तमान सुरतेहालों में यह कहना ग़ैरमुनासिब होगा कि राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश का खुफिया तंत्र पूरी मुस्तैदी से अपना फर्ज अदा कर रहा है।सच तो यह है कि हमारा खुफिया तंत्र बिल्कुल लचर व नकारा है।जिसके चलते विभिन्न प्रकार के सङ्गठन व विघटनकारी तत्व अपने मंसूबों में कामयाब होते जा रहे हैं,अन्यथा इन्हें  समय रहते दबोच लिया जाता औरकि अमनोअमन को कोई नुकसान नहीं होता,भाईचारे पर असामाजिक तत्वों के प्रहार नहीं होते।

   असलियत में देखा जाय तो नागरिक पुलिस अपनी बेनामी दागदार कमाई के लिए शुरू से ही कुख्यात रही है।हालांकि यह बेवजह भी नहीं है।अगर केंद्रीय खुफिया एजेंसी से जांच कराई जाय तो पता चलेगा कि अकेले लखनऊ के विभिन्न इलाकों से चलने वाले पेइंग गेस्ट हाउस व होस्टल पुलिस कर्मियों के ही हैं।आखिर कैसे?यह विचारणीय है।यहाँ ध्यातव्य है कि माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षक अमूमन किसी भी इंस्पेक्टर से दूनी से भी अधिक तनख्वाह पाने के बावजूद हमेशा बैंकों के कर्जों में उलझे रहते हैं जबकि सिपाही से लेकर पुलिस के उच्चाधिकारियों की शहरों में चमकती कोठियां उनकी काली कमाई की साक्षात गवाहियां देती हैं,किन्तु इसकी जांच कौन करे?जब गुनहगार भी वही और मुंसिफ भी वही तो क्या होगा?यह सोचनीय है।

  पुलिसिया खुफिया तंत्रों की नाकामी की मूल वजह नागरिक पुलिस की अकूत कमाई की नकल है।देखा जाय तो पिछले कई दशकों से एलआईयू में पदस्थ सिपाही,उपनिरीक्षक व निरीक्षक राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों,कर्मचारी संघों के नेताओं व कुछेक चिन्हित अपराधियों के साथ अत्यंत मृदुल सम्बन्धों में रहते हैं।खास बात तो यह है कि जो चीज खुफिया तंत्रों को जनमानस व अपराधियों से छिपानी चाहिए ये उसी पहचान को स्वयम जगजाहिर करने से स्वयम बाज नहीं आते।खुफिया विशेषकर एलआईयू व अभिसूचना विभाग के लोग तो मिलने पर अपने नाम व पदनाम के साथ विभागों का भी जिक्र करते हुए स्वयम को गौरवान्वित समझते हैं।जिससे खुफिया विभाग महज दिखावा बनकर रह जाता है औरकि इसके कर्मचारी भी अपनी जिम्मेदारियों को नागरिक पुलिस से जोड़कर जैसी तैसी रिपोर्ट अधिकारियों को प्रेषित करते रहते हैं।जिनमे आधी से ज्यादा झूठी होती हैं।यही कारण है कि आयेदिन लूट,अपहरण,मारपीट,दंगे फसाद व बलवों में ज्यादातर की सूचना स्थानीय पुलिस को नहीं होती है।लिहाजा खामियाजा सरकार और नागरिक पुलिस को भुगतना करना पड़ता है तथा अपराधी सरकार की प्रतिष्ठा पर आंच बन जाते हैं।

   वास्तव में यह मानव स्वभाव का विचित्र वैशिष्ट्य है कि यह तात्कालिक लाभ को अति महत्त्व देते हुए प्रलोभनों का शिकार सहज ही हो जाता है।ऐसे में खुफिया कार्मिकों का  समय में अधिक धन कमाने की चाह कोई नई तो नहीं है किंतु जब इस लालच के चलते वे लोकहित और सुरक्षा मामलों के इनपुट हाथ से जाने देते हैं तो अपराधियों को नई वारदात करने का मौका मिल जाता है।यदि ऐसा नहीं होता तो क्या कानपुर की गलियों में दो तीन दिन पूर्व से लगने वाले पोस्टरों व सोशल मीडिया पर चल रहे कुचक्रों का एहसास नहीं हो जाता।सत्य तो यह है कि खुफिया तंत्र अब जिला मुख्यालयों पर चाय की चुस्कियां लेते हुए देशदुनियाँ की सियासत में व्यस्त रहता है और नागरिक पुलिस के जिम्मे सबकुछ छोड़ देता है।यही कारण है कि नागरिक पुलिस भी कभी कभी खुफिया इनपुटों को नजरंदाज तक कर देती है।

    खुफिया तंत्रों की विफलता देश के लिए और कानून व्यवस्था के लियेहर दृष्टिकोण से घातक है।अतः जिलाधिकारियों व कप्तानों की भूमिका तय करते हुए इनके खिलाफ भी सख्त से सख्त कदम उठाए जाने चाहिए,क्योंकि जिलों में सारी जिम्मेदारी इन्ही दो अधिकारियों की होती है।इसके साथ ही साथ पुलिस तथा खुफिया तंत्रों को ह्यूमन इंटेलिजेंस को मजबूत करना चाहिए।वर्तमान में इनकी जगह दलालों ने ले ली है,जबकि इनकी कोई जरूरत नहीं है।बिना ह्यूमन इनेटेलीजेंस की मजबूती के सुरक्षा मजबूत नहीं होगी।कदाचित यही हमारे खुफिया तंत्र की सबसे कमजोर कड़ी है।

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