अंबेडकर नगर, 8 फरवरी। चूहे बिल्ली के खेल की चर्चा आदिकाल से बतौर एक लोकोक्ति होती आ रही है।जिसमें तमाम खतरों के बावजूद चूहे के बचने या बझने की प्रायिकता पचास प्रतिशत होती है किंतु यदि कोई चूहा छोटे से रोटी के टुकड़े की लालच में चूहेदानी में फंस जाय तो उसके मरने की संभावना सौ फीसदी निश्चितता में बदल जाती है।कदाचित इसीतरह राजनैतिक दलों के लोकलुभावन वायदों और जुमलों के प्रलोभन रूपी टुकड़ों के लोभ में आज समाज का हर तबका जिस तरह से फँसता जा रहा है।उससे यही कहना प्रासङ्गिक लगता है कि सियासी चूहेदानी अब लोगों की गलफांस बनती जा रही है।जिससे उबरना मुश्किल ही नहीं अपितु असम्भव प्रतीत हो रहा है,जो कि विचारणीय यक्ष प्रश्न है।
वस्तुतः किसी भी लोककल्याणकारी राज्य में जनादेश दो प्रकार के होते हैं।पहला जनादेश चुनावों में सबसे बड़ी विजेता पार्टी बनने वाले दल को जहाँ राजसत्ता संचालन का अख्तियार मिलना होता है वहीं दूसरा जनादेश स्वयम जनमानस को अपनी समस्याओं के समाधान का मिलता है।किंतु दुर्भाग्य से यही दूसरा जनादेश आज लोकलुभावन वायदों और घोषणापत्रों की शक्ल में बुद्धिजीवियों ही नहीं अपितु समाज के हर तबके के लिए विशेषकर मतदाताओं के लिए चूहेदानी बनकर उन्हें फँसाने में मशगूल है तथा लोग जाने अनजाने इसमें फँसकर तड़पने को विवश हैं।मतदाताओं की यह मनोस्थिति उनकी मानसिक गुलामी और जातीयता,धार्मिकता तथा अविवेक की द्योतक भी है।
मानव का लोभी स्वभाव उसकी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का परिचायक है।किंतु नीतिशास्त्र सदैव इसका विरोध यह कहकर करता रहा है कि लोभ:पापस्य कारणम।कदाचित यह कहना अनुचित नहीं होगा कि सियासत की चूहेदानी जनमानस को रोटी के चंद टुकड़ों की तरह इतनी उतावली और लोभी बनाती जा रही है कि लोग अपने नागरिक कर्तव्यों के साथ ही साथ राष्ट्रीय दायित्वों की भी इतिश्री करने से गुरेच नहीं करते।यही कारण है कि सदैव राजनैतिक दलों या दल विशेष की आलोचना करने वाले प्रबुद्धजन भी चुनावों के समय स्वजातीय प्रत्याशी या दल या धर्म के फेर में मूल समस्याओं से मुंह फेर कर सियासत के मकड़जाल में फंसकर नकारा लोगों को राजसत्ता का जनादेश दे देते हैं जो अपनी झोलियाँ तो भरते हैं किंतु आमजनता से कोई सरोकार नहीं रखते।जिससे जनरंजन कि बजाय जनाक्रोश बढ़ता है और लोगों की समस्याएं सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जाती हैं।कहना गलत नहीं होगा कि स्वामी प्रसाद मौर्य और पल्लवी पटेल जैसे लोगों द्वारा धार्मिक भावनाओं को भड़काकर समाज का जातीय विभाजन कुछ इसीतरह की चूहेदानी में ही फंसाने का कुचक्र है।जिससे मौर्य बिरादरी में जहां स्वामी स्वयम को बड़े नेता के रूप में स्थापित करते हुए बौद्ध धर्म के सर्वराकार बनना चाहते हैं तो पल्लवी पटेल भी अर्जक संघ की अगुवा बनने की फिराक में हैं।जो भी हो ये सभी लोग अपनी जुबान रूपी चूहेदानी से न केवल समाज को फंसाकर उलझाकर बर्बाद करने पर उतारू हैं अपितु आम जनता भी इन्हीं लोगों के चक्कर में लड़कर मरी जा रही है,जोकि सोचनीय है।
आज़ादी के 75 वर्षों में शिक्षा और साक्षरता की दरों में यद्यपि आशातीत वृद्धि हुई है किन्तु उतनी ही तेज़ी से मानवमूल्यों का क्षरण होने से लोगों का विवेक और उनकी अंतरात्मा की आवाज दुगुने वेग से दबती गयी।लिहाजा हमारे सामाजिक तानेबाने औरकि घरों के व्यक्तिगत मसले भी सियासत की चौखट पर निपटने की परम्परा तेज़ी से बढ़ती गयी।जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज की कर्मठता दिनोंदिन घटने लगी और लोग घर बैठे ही मुफ्त में सुविधाओं की प्राप्ति की चाह में राजनेताओं के पिछलग्गू बनने लगे।यहीं से सियासत भी जुमलों और वायदों की चूहेदानी लगाकर लोगों की भावनाओं को फंसाकर अपना उल्लू सीधा करना शुरू कर दी जो चुनाव दर चुनाव बदस्तूर जारी है।
व्यावहारिक दृष्टि से अगर चिंतन किया जाय तो मुद्रा का विनिमय ही आर्थिक तरक्की का मूल होता है।कर्मठता घटने से कामचोरों का एक नया वर्ग उभरता है जो राजनैतिक दलों के सहारे उदरपूर्ति से स्वार्थसिद्धि तक सीमित हो जाता है।यहीं से गरीबों के कल्याण हेतु बनाई जाने वाली योजनाओं में इनका प्रवेश शुरू होने से जहाँ मुफ्त बिजली,मुफ्त गैस,मुफ्त यात्रा,मुफ्त आवास व शौचालय,मुफ्त स्कूटी या अन्यान्य लुभावनी घोषणाएं परवान चढ़ती हैं जो मध्यम वर्ग पर करों का अतिरिक्त बोझ बनती हुई अति धनाढ्य वर्ग को और अधिक मालदार तथा कमीशनखोर बनाती हैं।जिससे सियासी दल औद्योगिक घरानों से चंदे,अधिकारियों,ठेकेदारों से कमीशन व अनधिकृत ठेके हासिल कर अकूत सम्पत्ति से स्वामी बनते हैं जबकि नौकरीपेशा और निम्न मध्यम से लेकर मध्यमवर्ग कराहने लगता है।
दिलचस्प बात तो यह है कि चाहे करों का बोझ कितना भी बढ़ता जाय या राजनैतिक दल कितने भी गुंडों, माफियाओं,लफंगों को धन लेकर प्रत्याशी बनाते जायं आखिर हम मतदाताओं का नागरिक कर्तव्य क्यों लुप्त होता जा रहा है,यह चिंतनीय है,सोचनीय है।आखिर जाति,धर्म,भाषा,अगड़े-पिछड़े और लोकलुभावन वायदों की समीक्षा आम मतदाताओं सहित प्रबुद्ध समाज क्यों नहीं करता?पढ़े-लिखे लोगों का भी जातिआधारित दलों या प्रत्याशियों की तरफ रुझान होने से अच्छे प्रत्याशियों की पराजय क्या लोकतंत्र के लिए शुभ है?कत्तई नहीं,कभी नहीं।
अंततः यह कहना सर्वथा प्रासङ्गिक है कि आज पढ़ा लिखा और स्वयम को जागरूक कहने वाला समाज भी जब सियासत की चूहेदानी में फंसकर जातिआधारित प्रत्याशियों और दलों को तरजीह देते हुए जुमलों के पीछे भागता दिख रहा है तो गांव जवार के मतदाताओं का कहना ही क्या।कुल मिलाकर राजनीति की चूहेदानी आज मतदाताओं का शिकार करने के लिए शहरों से गांव की गलियों तक बिछनी शुरू हो गयीं हैं जिनकी निगरानी सियासत की बिल्लियां कर रहीं हैं।
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