अम्बेडकरनगर, 7 फरवरी। वर्णाश्रम और श्रम आधारित प्राचीन भारत में विभिन्न वर्णों,वर्गों व समुदायों की स्थिति और इसके साथ ही इस्लाम,ईसाई, बौद्ध आदि पंथों के अनुयायियों की सांस्कृतिक व सामाजिक संरचना के सम्यक अनुशीलन तथा अध्ययन से यह बात स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है कि जहां प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था श्रम व कर्म के आधार पर विभिन्न समूहों,समुदायों व समाजों में विभक्त थी तो वहीं सनातन संस्कृति के पश्चात अभ्युदय को प्राप्त इस्लाम,ईसाई व बौद्ध तथा जैनियों में भी जातीय विभाजन किसी न किसी रूप में शुरुआत से आजतक विद्यमान है।इससे यह कहना कि जातीय व्यवस्था हेतु केवल व केवल पण्डित जिम्मेदार हैं तो प्रश्न उठता है कि फिर इस्लाम में शिया,सुन्नी, अहमदी,बरेलवी,खान,पठान,जुलाहा,दर्जी,हलालखोर,नट,हज्जाम,बौद्धों में हीनयान,महायान,जैनियों में श्वेतांबर,दिगम्बर और ईसाइयों में ओल्ड टेस्टामेंट व न्यू टेस्टामेंट के विभाजन हेतु उत्तरदायी कौन है?लिहाजा यह कहना ही ज्यादा प्रासङ्गिक है कि जाति व्यवस्था कर्म आधारित श्रम समूहों के अनुरूप किये जाने वाले कार्यों की दीर्घकालिक परिणति है,जोकि प्रत्येक धर्मों का प्रमुख भाग है औरकि जिसका उन्मूलन होना भी आवश्यक है।
वस्तुतः देखा जाय तो भारतीय स्वाधीनता संग्राम और उसके पश्चात संविधान सभा के निर्माण से लेकर आजतक ब्राह्मणों ने सदैव राष्ट्रवाद का समर्थन किया है न कि जातिवाद का।यदि आज के तथाकथित कुछेक नेताओं को इसके लिए किसी को उत्तरदायी ठहराना है तो उन्हें संविधान को ही जबाबदेह मानना चाहिए।कदाचित संविधान में यदि जाति व्यवस्था को संवैधानिक जामा नहीं पहनाया गया होता तो आज ऐसा विभाजन नहीं दिखता,ऐसी तकरार नहीं होती,इतना हो हल्ला नहीं मचता।
राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ के कार्यवाह द्वारा जाति व्यवस्था को अनुचित किन्तु इसके लिए पंडितों को उत्तरदायी ठहराना भी उनके व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं,जिनका असलियत से कोई वास्ता नहीं है।यदि जाति व्यवस्था हेतु पण्डित उत्तरदायी होते तो प्रश्न उठता है कि इस्लाम में हज्जाम,शिया,सुन्नी,अहमदी,खान,जुलाहा,मुकादम, शेख,बाजवा आदि जातियां भी क्या ब्राह्मणों की देन हैं याकि हीनयान,महायान,श्वेतांबर,दिगम्बर सहित अन्य पंथीय विभाजन भी ब्राह्मणों की देन हैं,इसका एक ही उत्तर है नहीं।ब्राह्मण किसी भी स्थिति में जातीय व्यवस्था हेतु दोषी नहीं है।आज यह संविधान की देन है।जिसे आजतक कानूनी जामा पहनाकर कुछेक वर्गों को रबड़ियाँ बंट रहीं हैं।
ब्राह्मण कभी भी जाति व्यवस्था का समर्थक या प्रवर्तक नहीं रहा है।यदि ब्राह्मण जातीय व्यवस्था का समर्थक होता तो कबीर व रैदास के गुरु स्वामी रामानुज नहीं होते,निम्न कुल में जन्मने वाले भीमराव रामजीलाल को पण्डित महावीर अम्बेडकर अपनी जाति अम्बेडकर की टाइटल नहीं देते और पुत्रवत नहीं पढ़ाते,ब्राह्मण यदि जाति व्यवस्था के समर्थक होते तो मुसलमान अब्दुल कलाम को मछुवारे के लड़के की बजाय पुत्र की तरह निःशुल्क पढ़ाते नहीं,स्वयम को क्षत्रान्तक अर्थात क्षत्रियों का नाश करने वाले घनानंद के विरुद्ध एक चरवाहे को चंद्रगुप्त बनाकर मगध सम्राट नहीं बनाते।
वस्तुतः प्राचीन भारतीय समाज में वर्णाश्रम की व्यवस्था कर्म आधारित थी।जिसके मुताबिक कार्यविशेष को करने वाले को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य या शूद्र वर्ण की संज्ञा दी जाती थी।इतिहास साक्षी है कि ब्राह्मण कुल में उत्तपन्न ऋषिपुत्र रावण को कभी भी उच्च स्थान आजतक नहीं दिया जाता औरकि राक्षस कहकर स्वयम ब्राह्मण ही सम्बोधित करते हैं।इतना ही नहीं रावण का वध करने वाले श्रीराम ही ब्राह्मणों के सबसे बड़े आराध्य हैं।यही कारण है कि स्वामी रामानुज जैसे विद्वान ने कबीर और रैदास को भी अपना शिष्य बनाते समय उनकी जाति नहीं देखी होगी।सत्य तो यह है कि असमानता और उत्पीड़न के विरुद्ध जो सबसे ज्यादा मुखरित होते हैं,वो ब्राह्मण ही हैं।लोकमंगल के लिए देह तक दान करने वाले दधीचि, हैहयवंशी क्षत्रियों के राजा कार्तवीर्य का समूल नाश करने वाले परशुराम,कन्हैया के परम दीन दरिद्र सखा सुदामा,नंद वंश के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजाने वाले मालव गणराज्य के ब्राह्मण व तक्षशिला के आचार्य चाणक्य भी ब्राह्मण ही थे।चाहे 1857 का स्वाधीनता संग्राम हो या राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले हों, या फिर गेस्ट हाउस कांड में मायावती जी की जान बचाने वाले तथा समाजवादी विचारधारा के स्व मुलायम सिंह को राजनैतिक स्थिरता देने वाले सबसे प्रमुख व्यक्ति जनेश्वर मिश्र भी स्वयम ब्राह्ममण ही थे।जिससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मण सदैव धर्म चक्र परिवर्तन और सांस्कृतिक एकता के संरक्षण हेतु सर्वदा सर्वस्व बलिदान करते रहे हैं।अतएव जातीयता के बीज का वपन ब्राह्मणों द्वारा किये जाने का आरोप सर्वथा निराधार है।
जातिगत आक्षेप के आधार पर धर्मग्रंथों तक को छेड़ने की परंपरा आज कोई नहीं है।अबतक सैकड़ों स्वामी प्रसाद जैसे लोगों ने ऐसा कुत्सित प्रयास किया है,जोकि एकबार फिर चर्चा में है।ऐतिहासिक दस्तावेज तो यहां तक बताते हैं कि महान सम्राट कहलाने वाले अशोक प्रियदर्शी ने कलिंग युद्ध में न केवल वहां की सेना को परास्त किया था अपितु लाखों निरपराध बच्चों,बूढ़ों और लोगों की हत्याएं करवायीं थीं।ये सभी लोग वैश्नव थे,जो किसी भी स्थिति में पराधीनता को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।सत्ता हेतु अपने 99 भाइयों का कत्ल कर राजसत्ता पर बैठे अशोक की सबसे युवा पत्नी तिष्यरक्षिता और अशोक के बड़े बेटे कुणाल के प्रेम की चर्चा तो यही बताती है कि महारानी तिष्यरक्षिता ने कुणाल की आंख फ़ूडवाते और उसे देश निकाला देते हुए बौद्ध धर्म की तिलांजलि दे दी थी।स्वयम बूढ़े अशोक ने भी कुणाल को अंधा किये जाने व निर्वासन की सूचना पाकर बौद्ध धर्म को तिलांजलि देकर तिष्यरक्षिता को क्षमादान की जगह कठोर दंड दिया था।इतना ही नहीं बाद के मौर्य शासकों द्वारा अहिंसा के प्रभाव के चलते राज्य की सीमाओं तक की सुरक्षा पर ध्यान तक नहीं दिया।लिहाजा यूनानियों ने भारत को फिर से अपने कब्जे में करना शुरू कर दिया था।अंतिम सम्राट बृहद्रथ तो इतना कमजोर शासक था कि उसके शिविरों तक पर यूनानियों ने कब्जा कर रखा था।यदि पुष्यमित्र न होते तो यह देश आज सनातन,बौद्ध,सिख,जैन व अन्य को छोड़ यूनानी सभ्यताओं को अपना लिया होता।तब आज के स्वामी प्रसाद को खोजने पर भी अस्तित्व नहीं मिलता। जैसे आज भी पढ़ाने वाले को शिक्षक,पढ़ने वाले को विद्यार्थी,सिलने वाले को टेलर और जुटा सिलने वाले को मोची कहा जाता है,यह नहीं देखा जाता कि अमुक व्यक्ति किस जाति का है,उसीप्रकार प्राचीन भारतीय समाज भी विभाजित था।जिसे संविधान ने संवैधानिक मान्यता प्रदान करते हुए सूचीबद्ध कर दिया।पहले की स्थिति में कबीर को महात्मा,रैदास को संत शिरोमणि, विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि और रावण को राक्षस की संज्ञा मिल सकती थी किन्तु आज की संवैधानिक व्यवस्था में कबीर को मुसलमान,रैदास को दलित,विश्वामित्र की ठाकुर और रावण को ब्राह्मण कहा जाता,जोकि सर्वथा अनुचित है।इस प्रकार सारसंक्षेप में यही कहना यथार्थ सत्य है कि जातिव्यवस्था हेतु ब्राह्मण नहीं अपितु आज का संविधान है।यदि 1950 में कानून बनाकर इसे समाप्त कर दिया गया होता तो यह बहस हमेशा के लिये बन्द हो जाती किन्तु ऐसा न करके भाईचारे विशेषकर हिंदुत्व के साथ अन्याय किया गया है।
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