@ उदय राज मिश्रा


अंबेडकर नगर, 31 जनवरी। आध्यात्मिक मान्यताओं एवम धारणाओं को आधुनिक मनोविज्ञान के निकषों पर परखने पर जहां अध्यात्म मनसा वाचा कर्मणा वशी होने पर जोर देते हैं वहीं मनोविज्ञान के सिद्धांत भी इनकी पुष्टि करते हुए मन पर नियंत्रण की स्थिति को ही एकाग्रता(कंसंट्रेशन)नामकरण करते हैं।कदाचित माघी पूर्णिमा के ही दिन काशी में जन्म लेने वाले सन्तशिरोमणि रविदास जी महाराज की जीवनी भी मन की शुद्धता को प्रमुख उपासना और कि सच्ची सेवा सिद्ध करती है।तभी तो कहा भी जाता है कि-

"मन चंगा तो कठौती में गंगा"

महात्मा रविदास का प्रादुर्भाव ऐसी परिस्थितियों में हुआ था जबकि स्वयम को प्रतिष्ठापित करना बेहद नामुमकिन सा था किंतु उनके सच्चे निष्काम कर्मयोग के आगे अंततः सबको मन की पवित्रता को आधार मानते हुए सन्तशिरोमणि की उपाधि से विभूषित करना पड़ा।इसप्रकार रविदास ने वेदों और पुराणों में वर्णित आख्यानों और उपदेशों को न केवल सिद्ध कर दिखाया अपितु उनके उपदेश आज भी उतने ही जीवन्त और जनमानस के लिए सर्वकालीन उपयोगी हैं। वस्तुतः मन की चंचल प्रकृति और हमारी लोलुप प्रवृत्ति ही हमारे व्यक्तित्व पर ग्रहण लगाते हैं।तभी तो गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा है कि"मनो हि चंचलो पार्थ"अर्थात मन चंचल होता है और कि बिना इसकी चंचलता से निजात पाए ध्येयपूर्ति नहीं हो सकती।अंग्रेज़ी के महान कवि ने भी लिखा है कि whose passions not his masters are--अर्थात जिस व्यक्ति की भावनाएं या इच्छाएं उसकी स्वामी नहीं होतीं वही प्रसन्न व्यक्ति होता है।महाभारत में भी युधिष्ठिर-यक्ष सम्वाद में धर्मराज उत्तर देते हुए कहे हैं कि-मन वायू से तेज़ है,पाप भूमि ते भारी।इसप्रकार मन की द्रुतगामिता अपनेआप में स्वयमसिद्ध है जिसपर हमारा कोई बस नहीं,नियंत्रण नहीं।हाँ, मन की इस प्रकृति को कर्म ही पूजा मानते हुए सभी प्राणियों के साथ बिना भेदभाव,बिना द्वेष व्यवहार करने की साधना से उसीप्रकार प्राप्त किया जा सकता है जैसे अनेक महर्षियों और सन्तशिरोमणि ने प्राप्त किया था।

मन ही व्यक्तित्व का दर्पण और व्यक्ति के कार्यों का निर्धारक होता है।मन में उठने वाली नानाप्रकार की भावनात्मक इच्छाएं ही मानव के कार्यों की दिशा और दशा की निर्धारक एवम नियन्ता होती हैं।सृजन युक्त चिंतन जहां अभिलाषा कहा जाता है वहीं मिलन और भोग युक्त विचार वासना की श्रेणी में आते हैं।वस्तुतः अभिलाषा और वासना दोनों ही मनकी इच्छाएं हैं अंतर और भेद चिंतन के प्रकार का है जो बिना मन को वश में किये सम्भव नहीं है।व्यक्ति नित्य अनेक अपराधों को सहज ही और कुछ स्थिति में जानकर करता रहता है।इन ज्ञाताज्ञात अपराधों से यदि समाज अनभिज्ञ भी रहता है,और व्यक्ति सामाजिक रूप से उच्च पदस्थ बना रहता है तो भी उसका अंतर्मन(आत्मा)उसे सदैव कोसती रहती है।जो लोग अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर चिंतन और मनन करते हुए अपने सकारात्मक सुधार करते हैं वे ही इंसानों की पंक्ति में गिने जाते हैं अन्यथा चारित्रिक,आर्थिक और मानसिक अपराधों से युक्त व्यक्ति समाज मे जीता हुआ भी पशुवत रहता है।उसके वैभव और समृद्धि भी उसे मन की प्रसन्नता और शांति नहीं लेने देते।कदाचित यह समाज ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है जहां उपाधियों और अलंकरणों से विभूषित लोग भी मन को नियंत्रित न कर पाने के कारण कलंकित होकर पड़े हुए हैं या जनमानस की जानकारी से बचकर आत्मग्लानि से भरे गलती पर गलती करते चले जा रहे हैं। इस प्रकार मनोविज्ञान भी स्पष्ट शब्दों में व्यक्तित्व के निर्धारण हेतु मन की एकाग्रता पर जहां जोर देता है वहीं आध्यात्मिक प्रेरणाओं से लबरेज़ सन्त शिरोमणि का व्यक्तित्व और कृतित्व हमें इतना ही पाठ पढ़ाता है कि-वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।अन्यथा जीवन यापन तो पशु पक्षी भी करते हैं फिर इस मानव जीवन का मतलब ही क्या।इसके अतिरिक्त महात्मा रविदास जिन्हें की संत शिरोमणि भी कहा जाता है,ने अपने निष्काम कर्मयोग से यह सिद्ध कर दिखाया कि मन लगाकर किया गया कर्म और सच्ची श्रद्धा से की गई उपासना कभी व्यर्थ नहीं जाती है।उपासना के लिए मन की पवित्रता और आचरण की शुद्धता आवश्यक है,आडंबर नहीं।