Saturday, November 23, 2024
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पाठ्यक्रमों की गुलाम शिक्षा– उदय राज मिश्रा

Ayodhya Samachar

अंबेडकर नगर। मुण्डकोपनिषद में लिखा है-“सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात विद्या वही है जो मानव को दैहिक,दैविक और भौतिक दुखों से मुक्ति प्रदान करने के साथ-साथ आध्यात्मिक संतुष्टि एवं प्रभु से तादात्म्य स्थापित करवाती हुई विदेह मुक्ति प्रदान करे।किन्तु जब सर्वसामान्य के मुक्ति की हेतु शिक्षा ही पाठ्यक्रमों में ऊलजलूल विषयों के समावेश व भाषाई दासत्व की शिकार बनी संस्कारों व मूल्यों के बीज वपन में असमर्थ होगी तो मानसिक दासत्व की भावना से मुक्ति की परिकल्पना सोच से परे है।अतः मानव के स्वतंत्र चिंतन व मनन हेतु शिक्षा का भारतीय स्वरूप भारतीय संस्कृति और सभ्यता के परिप्रेक्ष्य में निर्धारित होना आवश्यक है अन्यथा मैकाले के सिद्धांतों का प्रतिपादन किसी न किसी रूप में सदैव होता रहेगा।

    इटली के प्रसिद्ध विद्वान मैकियावली के अनुसार यदि आप भविष्य में क्या होगा,यह जानना चाहते हैं तो आपको सर्वप्रथम अतीत में हुई घटनाओं का अध्ययन करना चाहिए।इसप्रकार मैकियावली साफ साफ शब्दों में अतीत में हुई ऐतिहासिक गलतियों पर दृष्टिपात करते हुए भविष्य के लिए तैयार रहने का ठोस समर्थन करते हैं।इस बाबत यदि वामपंथियों के कॉकस का शिकार भारतीय इतिहास का अनुशीलन किया जाय तो सल्तनतकालीन इतिहासकार बरनी का कथन भी प्रमाण स्वरूप अपने समक्ष रखना प्रासंगिकता की कसौटी पर खरा उतरता है।बरनी ने लिखा है कि उसे सत्य ही लिखना चाहिए किन्तु सत्य लिखकर वह बादशाहों के क्रोध से नहीं बच सकता।इसप्रकार बरनी का यह कथन भारतीय इतिहासकारों व शिक्षाशास्त्रियों की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है कि आज जो इतिहास हम विभिन्न कक्षाओं में पाठ्यक्रम के रूप में विद्यार्थियों के समक्ष परोस रहे हैं वह झूठ का पुलिंदा और सत्य से इतर है।अतः यह आवश्यक है कि विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के स्वाभाविक स्वरूप के अनुसार अतीत के उपलब्ध प्रमाणों और साक्ष्यों के आधार पर भारतीयों के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति और तदनुरूप पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाय।उदाहरण स्वरूप ताजमहल को जहाँ वैश्विक स्तर पर अजूबा प्रमाणित किया गया है वहीं दक्षिण भारत के अनेक स्मारक व मंदिर इसप्रकार की स्थापत्य कला के उदाहरण हैं जिनके आगे ताजमहल दूर दूर तक नहीं ठहरता।किन्तु वामपंथी इतिहासकारों के कॉकस ने हमेशा उलजुलूल तथ्यों के आधार पर असत्य को सत्य प्रमाणित करने हेतु मनमाने तथ्यों को न केवल गढ़ा है अपितु कपोलकल्पित भी साक्ष्य स्वरूप में स्वीकार किया है।

   इतिहास साक्षी है कि विदेशी आक्रांताओं के आने से पूर्व भारत की शिक्षा व्यवस्था अत्यंत समृद्ध थी।यहाँ देश-विदेश के विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे।यही कारण है कि विदेशियों विशेषकर मुस्लिम आक्रांताओं ने यहां विजयप्राप्ति के साथ ही यहाँ के पाठशालाओं व विश्वविद्यालयों को लूटा तथा उन्हें नष्ट किया और अपने दरबारियों से मनमाफिक पुस्तकों को लिखवाकर भारतीयों को मानसिक दास बनाने की पुरजोर कोशिश की।जिसमें दुर्भाग्य से वामपंथी इतिहासकारों ने भी खूब खेला किया।कदाचित यही कारण है कि आज हम भारतीय अपनी संस्कृति और सभ्यता से इतर अंग्रेजियत के शिकार होते जा रहे हैं औरकि जिससे आज राष्ट्रीयता टूक टूक होने की कगार पर है।

    देखा जाय तो अंग्रेजों ने मुगलों की अपेक्षा शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सकारात्मक प्रयास अवश्य किया किन्तु इसके पीछे भी उनकी अपनी मिशनरियों वाली सोच थी।अंग्रेज भारतीयों के मन मस्तिष्क में भारतीय शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली से कमतर साबित करना चाहते थे और वे ज्यादा हदतक इसमें कामयाब भी हुए।लार्ड मैकाले का निस्यंदन सिद्धांत इस बात की पुष्टि करता है कि अंग्रेज भारतीय संस्कृत पाठशालाओं और मदरसों को नेस्तनाबूद करना चाहते थे।यही कारण है कि मैकाले ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को तुच्छ तथा दीन हीन बतलाते हुए सर्वप्रथम अमान्य घोषित किया तदुपरांत अपनी आंग्लभाषा आधारित शिक्षा प्रणाली को भारतीयों पर जबरिया थोपकर उन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रतिमानों से इतर विदेशियों के बारे में जानने और उन्हें अंगीकृत करने को मजबूर कर दिया।हालांकि कालांतर में सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अगुवाई में विश्वविद्यालय आयोग,मुदालियर आयोग,कोठारी आयोग,नई शिक्षा पद्धति 1986 और आचार्य राममूर्ति समिति जैसी शिक्षा नीतिनिर्धारक आयोग गठित किये गए किन्तु इन सबके बावजूद अंग्रेज़ी शिक्षा को भारतीय जनमानस सर्वश्रेष्ठ मानने से बाज नहीं आया।जिसका प्रतिफल यह हुआ कि हम अपने महापुरुषों,क्रांतिकारियों,लेखकों,विचारकों,समाजसेवियों की बजाय उन लोगों को ज्यादा श्रेष्ठ मानने लगे हैं जोकि असलियत में हमारे महापुरुषों के आगे पलभर भी नहीं ठहरते हैं।इतना ही नहीं सामाजिक विद्वेष,राष्ट्रीयता की कमी,संस्कारों का लोप,नैतिकता में ह्रास और सत्यनिष्ठा में संदेह आदि ऐसी कुप्रवृत्तियां आज भारतीयों के जनमानस में घर बनाकर उन्हें मानसिक दास बना बैठी हैं।जिनका अब निष्कासन होना भारतीयता के वजूद के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

     स्वतंत्रता प्राप्ति के बावजूद शिक्षा का अनिवार्य कानूनी अधिकार यद्द्पि आज सर्वशिक्षा अभियान के बैनर तले भारत में लागू है तथापि वित्तविहीन विद्यालयों की महंगी शिक्षा,सरकारी स्कूलों में भौतिक संसाधनों का अभाव,प्रायवेट कोर्सों के नामपर अभिभावकों से मोटी रकम की वसूली और कुकुरमुत्तों की तरह पनपते अंग्रेज़ी स्कूलों पर लगाम लगाने और भारतीयों को भारतीय परिवेश में भारतीयकरण की शिक्षा कैसे मिले जैसे प्रश्न आज बुद्धिजीवियों के समक्ष किसी चुनौती से कम नहीं हैं।यद्यपि नई शिक्षा नीति 2021 इस दिशा में एक प्रयास हो सकती है किंतु धरातल पर यह कितनी खरी उतरेगी इसका मूल्यांकन भविष्य की बात है।

   अंततः यह कहना सर्वथा समीचीन है कि अब वामपंथियों कॉकस से प्रभावित छद्म इतिहास से बाहर निकलते हुए शिक्षा का भारतीयकरण अत्यावश्यक है।आज भारत ऐसी शिक्षा व्यवस्था की ओर आशाभरी नजरों से देख रहा है जहाँ बिना किसी भेदभाव से सभी लोगों के शिक्षा के द्वार खुले हों और शिक्षा का मुख्य उद्देश्य जीविकोपार्जन की बजाय योग्य नागरिकों का निर्माण करते हुए हस्तकौशलयुक्त विद्यार्थियों की दीक्षा हो।जिससे समृद्ध और सशक्त भारत पाठ्यक्रमों की दास बनी शिक्षा के मकड़जाल से मुक्त हो अपने खोये गौरव को संरक्षित करने में सफलीभूत हो।

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