Monday, November 11, 2024
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प्रतिक्रियावाद बनाम सहिष्णुता–उदय राज मिश्रा

Ayodhya Samachar

अंबेडकर नगर। सहिष्णुता सहअस्तित्व और बंधुत्व का प्रतिफल तथा सौहार्द की जननी होती है।सहिष्णुता ही भारतीय संस्कृति की चिरपरिचित पहचान तथा क्षमादान प्रदान करने वाली अमोघ अस्त्र रही है।जिसमें बाह्य आक्रांता विजेता बनने के बावजूद डूबते उतराते रहे किन्तु यह संस्कृति नाना बार अनेक प्रहारों को झेलने के बाद भी चिरयौवन स्वरूप में जस की तस बनी रही।किन्तु दिनोंदिन बढ़ते जातीय,धार्मिक और राजनैतिक प्रतिक्रियावाद से जहाँ एकओर सदा से सहिष्णु रहने वाले लोग भी प्रतिसंघर्ष तथा प्रतिशोध को आमादा होते दिख रहे हैं,वहीं गंगा-जमुनी तहजीब की चिरपुरातन परम्पराओं को भी जर्जर होते देखा जा सकता है।कदाचित यह स्थिति न केवल दुखद अपितु चिंतनीय भी है,जिसपर स्वस्थ मन से चिंतन आवश्यक है।

गंगा-जमुनी तहजीब का वर्णन यूँ तो वैश्विक पटल पर सर्वत्र मिलता है किंतु इसके समावेशी स्वरूप का वर्णन किसी अज्ञात मौलवी ने इसप्रकार किया है- “वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,

निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा।

किये पै सिपर जिसने सातों समुंदर-

वो डूबा दहाने में गंगा के आकर।।”

इतिहास साक्षी है कि इस देश में शक,हूण, कुषाण, मुगल,फ्रांसीसी,पुर्तगाली और अंग्रेज तथा तमाम लुटेरे भी समय समय पर आक्रमण किये।कुछ लोग लूटपाट किये लौट गए और कुछ यहीं राज्य स्थापित किये तथा भारतीय संस्कृति को छिन्नभिन्न करने का भी कुत्सित प्रयास किये।किन्तु समय के साथ-साथ सबकेसब यहीं के बनकर रह गए।यही हमारी संस्कृति की विशेषता है कि इसके दुश्मन भी एक न एकदिन इसकी महत्ता को स्वीकार करते ही हैं।इस संस्कृति की यह विशेषता ही थी कि आजादी की जंग भी सभी लोगों ने समवेत स्वरों में मिलकर लड़ी तथा मुल्क को स्वाधीन कराया।

वस्तुतः सम्प्रति खतरा चंद धार्मिक,राजनैतिक और जातीयता के पुट में रंगे कट्टरपंथियों से कम अपितु उदारवादी धार्मिक नेताओं की चुप्पी से अधिक है।यही कारण है कि समाज में हिन्दू,मुस्लिम,ऊंच-नीच आदि विभेदनकारी घटनाओं की पुनरावृत्ति आयेदिन बढ़ती जा रहीं हैं।एक व्यक्ति की गलती को पूरे समाज और समुदाय की गलती मानकर दूसरे समाज के लोग अंधे होकर प्रतिक्रिया करने लगे हैं,जोकि चिंतनीय है,दुखद है।मुस्लिम समाज जहाँ अपने पाकपरस्तों को समझाने में विफल सिद्ध होता दिख रहा है वहीं कश्मीर आदि स्थानों पर चुनचुन कर हिंदुओं को मारने की घटनाओं से हिन्दू समाज भी उद्वेलित होता दिख रहा है।यही प्रतिक्रियावाद की मूल जड़ है।इसीतरह नव बौद्धवादियों द्वारा सवर्ण जातियों के खिलाफ दुष्प्रचार और दुर्भावनापूर्ण कृत्य तथा प्रत्युत्तर में सवर्ण समाज की प्रतिक्रिया भी बिखण्डनकारी साबित हो रही है।राजनीति इन सबके बीच अपनी रोटियां सेंक रही है।जिससे लोग एक दूसरे से दूर होते दिख रहे हैं।यही प्रतिक्रियावाद की सबसे खतरनाक परिणति है,जिसे रोकना राष्ट्रहित में अपरिहार्य है।

वस्तुतः दिनोंदिन प्रतिक्रियावादी होते समाज को पुनः पुराने सहिष्णुता और समरसता के रास्ते पर लाने हेतु विभिन्न धर्मों,पंथों और राजनैतिक दलों मौलवियों,पुजारियों,साधु-संतों,पादरियों,भिक्षुकों व अन्यान्य उदार लोगों को आगे आकर नौजवानों को समझाने तथा उन्हें नई दिशा देने का सही वक्त है।यदि साधु-संत मंदिर तक और मौलवी मस्जिद तक सीमित रहे तो टोपी और टीके का सङ्घर्ष बढ़ता ही जायेगा,जोकि राष्ट्रीयता के विकास में बाधक होगा।

सहिष्णुता के सम्वर्धन हेतु गोस्वामी तुलसीदास की निम्न पंक्तियों को आदर्शवाक्य मानकर आगे बढ़ने से निःसन्देह तौहीद की स्थापना होगी।गोस्वामी जी ने लिखा है-

“सीताराम चरनरत विगत काम मद क्रोध।

निज प्रभुमय देखउँ जगत केहि सन करउँ विरोध।।”

धर्म वस्तुतः अच्छाइयों को धारण करते हुए तदनुसार आचरण करते हुए परमसिद्धियों को प्राप्त करते हुए स्वयम को परमेश्वर में एकाकार करने का जीवन का मार्ग है।जो कभी भी कट्टरता और असहिष्णुता का सहारा नहीं लेता है,धर्मविहीन आचरण करने वालों को पिशाच की संज्ञा देता है।अतः वर्तमान परिवेश में सभी धर्मों,पंथों,जातीय समूहों और भाषाभाषियों को उनके उनके पंथानुसार आदेशित जीवनमूल्यों और सत्कर्मों का अनुपालन ही प्रतिक्रियावाद के शमन में सहायक औरकि आवश्यक है।यदि समय रहते इसपर ध्यान नहीं दिया गया तो स्थिति और भी भयावह होगी।जिसके जिम्मेदार न केवल कट्टरपंथी अपितु सभी साधु-संत,मौलवी-मौलाना और उदारवादी विद्वतजन भी होंगें।

यहाँ यह दृष्टव्य है कि सहअस्तित्व और साहचर्य ही मानवों के सुख व शांति का मूल है।यदि कोई मौलवी या धर्मोपदेशक अपने ही पंथ या धर्म को श्रेष्ठ बताता हुआ अन्यों पर प्रहार करता है तो यह न तो उस समाज के लिए हितकारी होगा और न ही सर्वसमाज के लिए ही उपयोगी होगा।अतएव मुस्लिम समाज को विशेष चौकन्ना रहते हुए निम्न प्रकार के कवित्तों से दूर ही रहना ज्यादा श्रेयष्कर होगा। यथा-

मुखालिफ पे करते हो गोया तबर्रा।

गुनाहों से होते हो तब तुम मुबर्रा।।

कदाचित इस्लामिक विचारधारा के अनुयायियों की अपने विपक्षियों और अन्य धर्मों के अनुयायियों के प्रति ऐसी भावना कभी भी बंधुत्व को बढ़ावा देने वाली नहीं हो सकती।अस्तु जियो और जीने दो का सिद्धांत ही सर्वजन के लिए महोपयोगी होगा।

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