अंबेडकर नगर। इतिहास साक्षी है कि किसी भी देश की उन्नति और अवनति इसबात पर निर्भर करती है कि वहाँ की शालायें कैसी हैं औरकि वहाँ के शिक्षकों की सेवा सुरक्षा,उनकी मानसिक व शारीरिक मनोदशा तथा उद्देश्य निर्धारण की क्षमता कैसी है।कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्र की दशा और दिशा के जिम्मेदार कोई और नहीं सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही होते हैं।किंतु जब शिक्षकों की सेवाशर्तों से खिलवाड़ कर उन्हें प्रबंधकों और शिक्षाधिकारियों का बंधुआ मजदूर बनाकर शोषण हेतु एक साधन मात्र समझा जाये तो फिर स्वस्थ और समृद्ध राष्ट्र की परिकल्पना का क्या होगा।कदाचित आज़ादी के इस अमृतकाल में नवगठित शिक्षा सेवा आयोग,उत्तर प्रदेश शिक्षकों के लिए किसी राहु-केतु से कम नहीं बनने जा रहा है।जिसके अस्तित्व में आने के साथ ही शिक्षकों की सेवाशर्तों से प्रबंधकों की मनमानी और पूरे उफान पर होगी,जोकि सोचनीय भी है औरकि चिंतनीय भी है।
ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश के इतिहास में माध्यमिक शिक्षा अधिनियम,1921 के पश्चात पहलीबार उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा आयोग(अब चयनबोर्ड) का गठन 1981 में बाकायदा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और योग्य शिक्षकों के पारदर्शी चयन हेतु किया गया था,जोकि 1982 में पूर्ण अस्तित्व में आने के साथ ही तमाम उतार चढ़ावों से दो चार होता हुआ येनकेन अबतक सांसे ले रहा था।गौरतलब की चयनबोर्ड की धारा 21 शिक्षकों के उत्पीड़न के विरुद्ध एक ब्रह्मास्त्र थी।जिसके प्रावधानों के मुताबिक बिना चयनबोर्ड की पूर्वानुमति से प्रबंधन किसी भी शिक्षक की परिलब्धियों में किसी प्रकार की कोई कटौती नहीं कर सकता था।इतना ही नहीं शिक्षकों की सेवासमाप्ति आदि के प्रकरणों पर भी अंतिम निर्णय चयनबोर्ड ही लेता था।जिससे प्रबंधकों की मनमानी नहीं चलती थी औरकि शिक्षक अपने द्वारा साक्ष्यों के प्रकटीकरण करते हुए दोषमुक्त भी हो जाता था किंतु नवगठित शिक्षा सेवा आयोग में उक्त प्रावधानों का उल्लेख न होना ही शिक्षकों की सेवा सुरक्षा को लेकर गम्भीर चिंता का विषय बना हुआ है।जिसे लेकर राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ,माध्यमिक शिक्षक संघ व अन्य तमाम गुट भी आक्रोशित हैं तथा वे पुनः धारा 21 की बहाली नवगठित शिक्षा सेवा आयोग में चाहते हैं।
ध्यातव्य है कि धारा 21 की ही तरह माध्यमिक शिक्षा अधिनियम की धारा 18 का भी उल्लेख नवगठित आयोग में नहीं होने से माध्यमिक विद्यालयों में तदर्थ प्रधानाचार्यों की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी।ऐसी स्थिति में कामचलाऊ और कार्यवाहकों के सहारे कार्यसंचालन का दायित्व वरिष्ठ शिक्षकों के कंधों पर होगा,जोकि काम तो प्रधानाचार्य का करेंगें उन्हें प्रधानाचार्य पद का कोई वेतन भुगतान नहीं किया जाएगा।अबतक माध्यमिक शिक्षा अधिनियम,1921 व चयन बोर्ड के प्रावधानों के मुताबिक प्रधानाचार्य पद पर पदोन्नति होने के 60 दिनों पश्चात वरिष्ठतम शिक्षक को तदर्थ प्रधानाचार्य के रूप में पद का पूर्ण वेतन व सुविधाएं प्राप्त होती हैं।दिलचस्प बात तो यह है कि इंटर कॉलेजों के तदर्थ प्रधानाचार्यों का ग्रेड पे 7600 होने के कारण जिला विद्यालय निरीक्षक व मंडलों के संयुक्त शिक्षा निदेशक व उपशिक्षा निदेशक भी खार खाते हैं।ज्ञातव्य है कि जिला विद्यालय निरीक्षकों का ग्रेड पे 6600 व बीएसए का 5400 होता है,जोकि इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्यों के 7500 ग्रेड पे से काफी कम होता है।जिससे ये अधिकारीगण सदैव दबी जुबान इसका विरोध करते रहते हैं।जिसके फलस्वरूप नव गठित आयोग में इस धारा का प्रावधान भी समाप्त होने से अब माध्यमिक विद्यालयों में तदर्थ प्रधानाचार्यों की व्यवस्था भी भूत काल हो जाएगी,जोकि शिक्षकों के हितों पर किसी डकैती से कम नहीं है।
वस्तुतः प्रबंधकों द्वारा विद्यालयों में अवैध उसूली,भाई-भतीजावाद और शोषण को समाप्त करने के निमित्त ही चयनबोर्ड में धारा 21 का प्रावधान किया गया था।क्योंकि प्रबंधकों के गलत कार्यों का विरोध करने वाले शिक्षकों को जब प्रबन्धक उत्पीड़ित करते थे तो यही धारा उन शिक्षकों का बचाव करती थी।किन्तु नवगठित आयोग बगैर इन धाराओं के शिक्षकों के लिए किसी मानसिक गुलामी से कमतर नहीं होगा।जोकि अमृतकाल में शिक्षकों के लिए राहुकाल होगा।
इस बाबत राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के प्रांतीय महामंत्री आशिष मणि त्रिपाठी ने मुख्यमंत्री व राज्यपाल सहित महानिदेशक स्कूल शिक्षा को ज्ञापन तथा मांगपत्र देते हुए नवगठित आयोग में भी शिक्षकों को प्रबंधकीय उत्पीड़न से बचाने हेतु चयनबोर्ड व अधिनियम की धारा 21 व 18 की पुनर्बहाली हेतु अपना पक्ष रखते हुए शिक्षकहित में निर्णय लिए जाने की मांग की है।जबकि माध्यमिक शिक्षक संघ,उत्तर प्रदेश आंदोलन की राह पर है।निःसन्देह आज नहीं तो कल सरकार को इस धाराओं को पुनर्स्थापित करनी पड़ेगी।