Saturday, November 23, 2024
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पैराडाइज लॉस्ट और रामचरित मानस का मर्म

Ayodhya Samachar


@ उदय राज मिश्रा


अंबेडकर नगर । यद्यपि भारतीय परिप्रेक्ष्य में कवियों की श्रेष्ठता को इंगित करते हुए यह निम्न पंक्तियां कही गयीं हैं-

सूर सूर तुलसी शशी, उडगन केशवदास।

अबके कवि खद्योत सम,जँह तँह करत प्रकाश।।

इसीतरह संस्कृत वाङ्गमय में जहां महाकवि कालिदास को पुरा कवीनां गणना प्रसंगे, कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास: कहकर सर्वमान्य रूप से कविकुल गुरु की उपाधि से विभूषित किया गया है,वहीं कालिदास की उपमा आंग्ल भाषा के कवि व नाटककार विलियम शेक्सपियर से करते हुए कालिदास इज ऎज लाइक शेक्सपियर कहा जाता है।दिलचस्प बात तो यह है कि अंग्रेज़ी के प्रख्यात कवि व पैराडाइज लॉस्ट के प्रणेता जॉन मिल्टन द्वारा परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के उपहारों या चढ़ावों या उनके कार्यों की कोई आवश्यकता नहीं होती है,ऐसा बताया गया है,किन्तु रामचरित मानस में महामना तुलसीदास के अनुसार प्रभु को भी समय समय पर लोगों के सहयोग व उनके कार्यों की आवश्यकता पड़ती है।जिससे यह सहज प्रश्न उभरता है कि आखिर जॉन मिल्टन व तुलसी के दर्शन में ऐसा मूलभूत विभेद क्यों है? क्या सचमुच तुलसी का दर्शन ही यथार्थसत्य का परिचायक है याकि मिल्टन की कविता सही है?जो भी हो मानव जिज्ञासा दोनों ही विभूतियों के चिन्तनों पर चर्चा को जन्म देती ही है।

प्रश्न जहाँतक जॉन मिल्टन की शख्सियत के मूल्यांकन का है तो इसमें कोई शक नहीं कि उनकी कृति पैराडाइज लॉस्ट के दोनों भाग अपनेआप में बेजोड़ हैं।जिनका अध्ययन करते हुए अध्येता को प्रभु की परमसत्ता का बोध होने के साथ ही साथ अपने कर्तव्यों व दायित्वों के सजग निर्वहन की भी शिक्षा मिलती है। जॉन मिल्टन की स्थिति वस्तुतः जीवन के यौवनावस्था में अत्यहम की अवस्था है।जिसमें वह इस्लामिक मौलवियों की तरह स्वयम को खुदा या परमेश्वर को अन्यों की अपेक्षा ज्यादा जानने का दम्भ पाल बैठता है।उसे यह भ्रम होता है कि वह प्रभु के गुणगान की कविताएं लिखकर प्रभु का प्रचार जनजन तक कर रहा है अर्थात यदि व कविताएं नहीं लिखेगा तो प्रभु को जानने वाले जान नहीं पायेगा।इसप्रकार प्रभु गुमनाम हो जायेगें।यही कारण है कि जब 44 वर्ष की अवस्था में वह अंधा होता है तो सबसे पहले ईशनिंदा ही करने लगता है और कहता है कि-

When I consider err half my days,

How my light is spent,

And that one talent lodged with me useless,which is death to hide,

Though my soul more bent,

Lest He returning chide.

दिलचस्प बात यह है कि अंधा होने पर पहले परमेश्वर की निंदा करने वाला मिल्टन स्वयम बाद में यह अनुभव करता है कि शायद प्रभु को मनुष्यों के उपहारों या मनुष्यों के कार्यों की आवश्यकता नहीं होती है।अतः वह अपनी शिकायत वापस लेते हुए पश्चात्ताप करता हुआ कहता है-

God does not need either man’s work or his own gifts.बस यहीं से तुलसी का दर्शन जॉन मिल्टन से उलट होकर बिल्कुल विपरीत दिशा में प्रवाहित होने लगता है।मिल्टन कहते हैं कि प्रभु को मनुष्यों के उपहारों या मनुष्यों के कार्यों की कोई आवश्यकता नहीं होती,जबकि तुलसीदास जी माता जानकी की खोज के समय समुद्र पार करते समय हनुमान और सुरसा संवाद का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि स्वयम हनुमान जी सुरसा से कह रहे हैं कि- राम काज करि फिरि में आवउँ।

सीता की सुधि प्रभुहिं सुनावहुँ।।

तब तव बदन पैठिहहु आई।

सत्य कहहुँ मोहिं जान दे माई।।

मिल्टन से उलट यहां हनुमान जी प्रभु श्रीराम का कार्य करने लंका जा रहे हैं अर्थात प्रभु श्रीराम को भी भक्तों या मनुष्यों द्वारा सहयोग की अपेक्षा थी,कामना थी।इतना ही नहीं मैनाक पर्वत से भी हनुमान कहते हैं कि-

रामकाज किन्हें बिना,मोहिं कहाँ विश्राम।

इसप्रकार मिल्टन के पैराडाइज लॉस्ट व तुलसी जे रामचरित मानस के अध्ययन से यह भ्रम उत्तपन्न होता है कि दोनों में सही व यथार्थ कौन है?किसका दर्शन मानवता के अधिक करीब व स्वयम में पूर्ण है?

देखा जाय तो जॉन मिल्टन अपनी विद्वता के दम्भ में लोकख्याति अर्जित करने औरकि स्वयम को ईश्वर से भी उच्च प्रमाणित करने का दम्भ था।जबकि तुलसीदास जी इसके विपरीत कणकण में प्रभु का दर्शन करते हुए स्वयम को लघुतर मानते हुए कहते हैं कि-

सियाराममय सब जग जानी।

करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।

मोरि सुधारिह सो सब भाँती।

जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।।

सोइ जानहि जेहि देहु जनाई।

जानत तुमहि तुमहिं होई जाई।।

इसीतरह वनवास पर निकले श्रीराम द्वारा केवट से भी सम्वाद द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर को भी दूसरों के शौर्य, कार्य व समर्पण का सम्मान ही नहीं अपितु उनका सहयोग भी लेना पड़ता है।

प्रभु श्रीराम द्वारा नवधा भक्ति की स्वामिनी भीलनी के जूठे बेर खाना हो या अहिल्या का उद्धार या फिर बानर-भालुओं का सहयोग सब लोकमंगल,जनरंजन और उत्तम नैतिक आचरण व मर्यादाओं के पाठ ही पढ़ाते हैं।जिनके श्रवण, मनन व व्यवहार में परिवर्तित होने से श्रेष्ठ संस्कृति का पृष्ठपोषण होता है,संस्कार झलकते हैं।जबकि मिल्टन की कविताएं कहीं भी मर्यादाओं के पाठ नहीं पढ़ाते हैं।अलबत्ता यह संदेश देते हैं कि जो अपनी बारी के इंतज़ार में सतत कर्तव्यरत रहते हैं,वे भी सच्ची सेवा करते हैं।

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