अंबेडकर नगर। कहावत है कि-
“आये थे हरिभजन को,लोटन लगे कपास”
कदाचित उक्त कहावत आज के मौजूदा सूरतेहालों के परिप्रेक्ष्य में मीडिया जगत पर बिल्कुल सटीक बैठती हुई चरितार्थ करती हुई दृष्टिगोचर होती है।यही कारण है कि आज समाचारपत्रों,न्यूज़ पोर्टलों और सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों से आमजनमानस का विश्वास कम से कमतर होता जा रहा है।इतना ही नहीं पत्रकारों का एक समूह ही दूसरे समूह तक को कोसते हुए जाने क्या क्या कहते हुए भी टीवी चैनलों से विभिन्न अभिकरणों तक किसी न किसी रूप में अवश्यमेव मिल जाते हैं।आखिर ऐसा क्यों है?इसकी मूल वजह क्या है?क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नामपर दल विशेष या व्यक्तिविशेष का गुणगान या निंदा ही मीडिया का धर्म हो गया है याकि गांव,गरीब,वंचितों,किसानों,नौजवानों की जुबान बनकर संसद की प्राचीरों तक उनकी आवाज को पहुँचाना अब गौण विषय हो गया है?आदि आदि प्रश्न आज आमजनमानस के मन मस्तिष्क और मानस में कौंध रहे हैं,जिनका उत्तर स्वयम मीडिया को ही देना होगा क्योंकि यह दौर आत्ममंथन और चिंतन का दौर है अन्यथा आगे यकीन का संकट है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का देखा जाय तो सबसे प्रामाणिक व सुंदर स्वरूप रामावतार में प्रभु श्रीराम के राज्याभिषेक के उपरांत देखा जा सकता है।रामराज्य का वर्णन करते हुए तुलसी जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की राजाज्ञा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-
“जौ अनीति कछु भाखौं भाई।
तौ मोहिं बरजेहु भय बिसराई।।”
कदाचित प्रभु श्रीराम द्वारा जारी यह राजाज्ञा तत्समय प्रजाजनों को खुल्लमखुल्ला अधिकार प्रदत्त करती हुई मानी जा सकती है जहां निर्भय होकर राजा और पदाधिकारियों द्वारा किये जाने वाले अनुचित कृत्यों का विरोध करने का अधिकार आमजनों को दिया गया था।तत्समय आज जैसे टीवी चैनल,अखबार और पोर्टल न होने के कारण रामराज्य में राजा राम द्वारा जारी किया गया उक्त निर्देश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पहला और सर्वोत्तम जीवंत प्रमाण माना जा सकता है।
मीडिया की महत्ता और सामाजिक परिवर्तनों के क्रम में इसके महत्त्व के कारण ही स्वाधीन भारत में न्यायपालिका,विधायिका और कार्यपालिका के साथ ही साथ मीडिया को लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ तक कि मान्यता प्रदत्त है औरकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार अभिव्यक्ति का संवैधानिक अधिकार भी प्राप्त है।किन्तु नब्बे के दशक के बाद पत्रकारिता में दिनोंदिन आयी गुणात्मक कमी,पत्रकारों का दलीय प्रेम और राजनेता बनने की ललक ने निष्पक्षता को कलंकित किया है।आज हालात यहां तक बद से बदतर हो चुके हैं कि कुछेक टीवी चैनल भाजपा,कुछ कांग्रेस,कुछ सपा-बसपा-राजद तो कुछ अन्यान्य राजनैतिक दलों की उपलब्धियों को अतिशयोक्ति रूप से बखान या कटु आलोचना करते हुए देखे-सुने जा सकते हैं।कमोवेश यही हाल अखबारों और न्यूज़ पोर्टलों का भी है।जिससे सामाजिक परिवर्तन नकारात्मक दिशा में होने के साथ ही साथ आमजनमानस में भ्रम और एकदूसरे के प्रति वैमनस्य का भाव पनपने लगा है जोकि पत्रकारिता की मूल अवधारणा से इतर और अस्वीकार्य है।
पत्रकारिता सरकारों व अधिकारियों की तानाशाही के विरुद्ध एक नकेल होती है।जिसके द्वारा ही सुदृढ न्यायप्रणाली की स्थापना और लोकमंगल की योजनाओं का सम्यक क्रियान्वयन संभव होता है।यही कारण है कि अखबारों की महत्ता का वर्णन करते हुए किसी कवि ने लिखा है कि-
“न तेग चलाओ,न तलवार निकालो।
जब तोप मुखालिक,अखबार निकालो।।
अब प्रश्न उठता है कि तोप की अपेक्षा और अधिक गहराई तक चोट मारने वाली पत्रकारिता की वो पैनी धार कहाँ है?क्या जिलाधिकारियों,अधिकारियों,दरोगाओं व मक्कार तथा भ्रष्ट अधिकारियों से बख्शीश प्राप्तकर उनके बुरे कार्यों पर सच्चाई का आवरण मात्र चढ़ाना ही पत्रकारों का बचाखुचा दायित्व रह गया है याकि अभी उनमें थोड़ा सा जमीर जिंदा है।जो भी आज भी 10 से 15 प्रतिशत निष्पक्ष पत्रकार हैं जिनके दमपर थोड़ाबहुत ऐतबार बचा हुआ है अन्यथा थानों की प्राचीरों से संसद की दीवारों तक स्याह को सफेद साबित करने वाले पत्रकारों और मीडियावालों की लंबी फौज खड़ी है,जो निष्पक्ष पत्रकारों से बेपरवाह पत्रकारिता को निरंतर कलंकित करने में ही अभिव्यक्ति की आज़ादी समझती है।
पत्रकारिता का एक दुखद पहलू यह भी है कि आजकल जननेताओं की तुलना में राजनेताओं को ज्यादा तरजीह मिलने से आमजनता से पत्रकारों का राब्ता खत्म हो गया है।राजनेता चुनावों द्वारा पद प्राप्तकर भले ही पदाधिकारी बन जाएं किन्तु उनका लोकमंगल से कोई सरोकार नहीं होता है।जबकि जननेता आमजनता के दिलों में राज तो करता है किंतु मीडिया की कवरेज से मरहूम रहता है,कारण कि यहां मीडिया का वित्तपोषण नहीं होता है।हाँ, ये बात जरूर है कि कुछेक निष्पक्ष पत्रकारों की नजर यदाकदा उनपर पड़ती रहती है जिससे कि वे भी समाज में बतौर समाजसेवी बने रहते हैं।देखा जाय तो महात्मा गांधी,तिलक,गोखले,आज़ाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आदि ऐसे जननेता थे जो आज भी सर्वकालिक होकर जनमानस के दिलों में विराजते हैं जबकि आज के सांसदों,विधायकों,मंत्रियों और अफसरों के ऊपर कहीं कालिख तो कहीं जूते तक फेंकें जाते हैं।यही फर्क जननेता को राजनेता से अलग करता है।वस्तुतः ऐसे ही जननेताओं की जुबान और आवाज मीडिया की आवाज होनी चाहिए न कि भ्रष्ट और तानाशाह नौकरशाहों व असफ़रशाहों तक सीमित होकर लाल फीताशाही को बढ़ावा देना चाहिए।