अंबेडकर नगर। राजनीति में नैतिकता और विचारधाराओं का स्वार्थ टकराने पर कोई मोल और महत्त्व नहीं होता है,यह एकबार फिर दल दल भटक रहे और हाशिये पर चल रहे स्वयं स्वामी प्रसाद मौर्य की सियासत ही सिद्ध करती हुई दिख रही है।जैसे तैसे चर्चा में बने रहने के खातिर कभी बसपा,कभी सुभासपा, कभी भाजपा और अब सपा का मोहरा बने स्वामी की तासीर ही उस व्यक्ति जैसी है जो जिस पत्तल में खाता है,उसी में छेद करता है।भाजपा में रहते हुए रामकथा करता है,अयोध्या में आकर जय श्रीराम बोलता है,वही व्यक्ति अस्तित्व के विनाश की दहलीज पर भारतीय संविधान बनने से कई सौ साल पहले की पुस्तक श्रीरामचरितमानस तक को प्रतिबंधित करने की कुत्सित मांग से भी पीछे नहीं रहता।जिससे यह कहना कि राजनैतिक दल विचारधाराओं पर आधारित सियासत करते हैं,आज के परिप्रेक्ष्य में कदाचित सबसे बड़ा असत्य कथन होगा।आज कमोवेश सभी पार्टियां सत्ताप्राप्ति को मद्देनजर रखती हुई जातीय समीकरणों और आर्थिक प्रबंधन को तरजीह देती हुई अन्य दलों के दलबदलुओं को जिस तरह चुनावों में प्रत्याशी बनाना शुरू की हैं उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि राम मनोहर लोहिया,भीमराव अंबेडकर,कर्पूरी ठाकुर और अटल बिहारी जैसे लोगों की विचारधाराओं का दलों के लिए कोई मायने नहीं हैं औरकि सियासी दल इनकी विचारधाराओं की चुनावों के हवनकुंड में बखूबी आहुति देती हुई येनकेन सत्ता की भूखी हैं।
दिलचस्प बात तो यह है कि बात चाहे मध्यप्रदेश या फिर पंजाब की हो अथवा राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सियासत हो,हर जगह दलबदलुओं की चांदी और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी किया जाना सियासी दलों के लिए आम बात हो गयी है।अलबत्ता उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी दलबदलुओं को टिकट देने और लोहिया की विचारधारा को दरकिनार करते हुए निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी करने में अन्य दलों से काफी आगे है।यही कारण है कि सपा अपने अंतर्कलह में बझकर सर्वाधिक प्रभावित भी होती हुई दिख रही है।जबकि भाजपा अन्य दलों से पार्टी बदलकर कमल थामे राजनेताओं से एकसाथ कई कई तीर साध रही है,हालांकि ये बात और है कि भाजपा के कभी हमसफ़र रहे ओम प्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य तथा दारा सिंह चौहान अब सपा का झंडा थामकर भाजपा को चुनौती दे रहे हैं किंतु स्वयम भी चुनावी मकड़जाल में उलझकर रह गए हैं।जिससे इनकी नैया भी मझधार में फंसी है औरकि स्वामी तो बद से बदतर हालात तक पहुंच चुके हैं।।कुल मिलाकर स्थिति रोचक और रोमांचक होती जा रही है।
कभी अटल आडवाणी मुरली मनोहर,भाजपा के तीन धरोहर के नारे तले मात्र दो सांसदों के साथ राजनीति की सीढ़ियां चढ़ने में भले ही केंद्र की सत्ता मात्र एक वोट से गंवाने वाली भाजपा आज केंद्र में सत्तासीन है मगर कभी अटलबिहारी ने सरकार बचाने के लिए कोई खरीद फरोख्त नहीं किया था।उस दौर में भाजपा को दल की बजाय विचारधारा कहा जाता था और इसे सर्वाधिक अनुशासित पार्टी भी माना जाता था किंतु आज हालात कमोवेश अधिनायकवाद की तरफ इशारा करते हैं।बदलते दौर में शाह और मोदी तथा राजनाथ की तिकड़ी ने उदारवाद का चोला उतार फेंक जैसे को तैसा का जबाब देना शुरू कर दिया।लिहाजा किसी भी दल के दलबदलुओं को भाजपा भी एक मजबूत शरणगाह जैसी लग रही है।आज कांग्रेस के कद्दावर नेता आरपीएन सिंह,जितिन प्रसाद,ज्योतिरादित्य सिंधिया,सपा के सुभाष राय आदि ऐसी शख्सियत हैं जो कभी भाजपा के कटु आलोचक रहे हैं किन्तु बदलते दौर में यही लोग तुरुप का इक्का बने हुए हैं।
विचारधाराओं को तिलांजलि देने में सपा जहां पहले स्थान पर है तो वहीं बहुजन समाजवादी पार्टी भी पीछे नहीं है।सपा के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव स्वयम अपने ही पिता और सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव तथा चाचा शिवपाल तक को एक समय किनारे लगा चुके हैं,ये बात और है कि इस चुनाव में मजबूरी वश ही सही किन्तु चाचा और पिता कुछ बोलने से बच रहे हैं।इतना ही नहीं बात बात पर राम मनोहर लोहिया की दुहाई और छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्र की बतकही करने वाली समाजवादी पार्टी अब कहने के लिए समाजवादी किन्तु असलियत में सत्तावादी पार्टी बनकर रह गयी है।इसका ताजा उदाहरण अयोध्या मण्डल औरकि अम्बेडकर नगर जिला है,जहाँ बसपा से निष्कासित या दलबदल कर सपा का चोला पहने राम अचल राजभर,लालजी वर्मा,राकेश पांडेय और कभी दलित एक्ट के सर्वाधिक दुरुपयोग करते हुए यादवों,ब्राह्मणों और क्षत्रियों का उत्पीड़न करने वाले चर्चित त्रिभुवन दत्त को क्रमशः अकबरपुर,कटेहरी,जलालपुर और आलापुर से प्रत्याशी बनाना पार्टी के निष्ठावान और लोहियावादी कार्यकर्ताओं का पूर्णरूपेण किसी तिरस्कार से कम नहीं है।मजेदार तथ्य तो ये है कि इन नेताओं का कभी भी लोहिया की विचारधारा से मेल नहीं रहा है औरकि ये हमेशा सपा को सर्वाधिक क्षति पहुंचाने का काम किये हैं।अब देखना है कि मतदाता विशेषकर यादव मतदाता इन नेताओं के साथ कैसा न्याय करते हैं।विश्वस्त सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि सपा को अपने काडर वाले कार्यकर्ताओं की उपेक्षा उसके लिए भारी पड़ेगी और भाजपा को विशेष फायदा मिलेगा।
बहुजन समाजवादी पार्टी जो कभी दलितों की हिमायती पार्टी कहलाती थी आज बिल्कुल सबसे जुदा और सदैव धन के बदले टिकट को लेकर बदनाम रही है।यही कारण है कि माफियाओं,गुंडों और धनाढ्यलोगों के लिए टिकट खरीदकर चुनाव लड़ने के लिए बसपा सदा से सबसे मुफीद दल रही जबकि सपा तो ऐसे लोगों को पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत करने से गुरेच नहीं करती।बसपा द्वारा भी आलापुर से के डी गौतम को प्रत्याशी बनाये जाने से काडर के सभी कार्यकर्ता नाराज हैं।जिससे जिले की हर सीट बसपा के हाथ से चली जाय तो कोई हैरत नहीं होगी।
कांग्रेस यद्यपि देश की सबसे पुरानी किन्तु वर्तमान में सबसे लचर सङ्गठन की शिकार और हाशिये पर है किंतु सपा और बसपा की तुलना में अभी भी विचारधारा यहां जीवंत है।इस चुनाव में कांग्रेस द्वारा अपने ज्यादातर निष्ठावान कार्यकर्ताओं को टिकट देना जहां उसकी मजबूरी है वहीं उसकी नीति का भी अंग है।हालांकि कांग्रेस ने भी दलबदलुओं के लिए दसो द्वार खोल दिया है किंतु इसके यहां आने वाले कम और यहां से विदा होने वाले ज्यादा हैं।लिहाजा कांग्रेस इस चुनाव में अपने पुराने और कुछ दलबदलुओं के सहारे वैतरणी पार करने की असफल कोशिश करती हुई दिख रही है।इसीतरह जनता को मुफ्तखोरी की लत लगाकर सत्ता प्राप्ति की लोलुप आप और अन्य छुटभैये दल भी मैदान में कमोवेश हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देने की नीयत से भी मैदान में हैं।
अंततोगत्वा यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आज की सियासत में दलीय विचारधारा कोई मायने नहीं रखती।सत्ता की प्राप्ति हेतु हथकंडे और दलबदलुओं को टिकट वितरण तथा बदले में धन ऐंठना ही राजनैतिक दलों की मुख्य विचारधारा है,जो देश के वैचारिक स्वरूप के लिए राहग्रहण से कमतर नहीं है।