Sunday, September 22, 2024
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व्यावहारिक ज्ञान से दूर होती शिक्षा–उदय राज मिश्रा

अंबेडकर नगर। सुभाषितरत्नानिभण्डागाराम में लिखा है-


विद्या विहीना पशुभि: समाना


   अर्थात मनुष्यों को पशुओं से इतर श्रेष्ठता प्रदान करने वाला मूलतत्व विद्या ही है।विद्या भी परा और अपरा दो प्रकार की होती है।जिन्हें नामभेद से विद्या और अविद्या नामों  से भी जाना जाता है।किंतु जब औपचारिक अभिकरणों यथा विद्यालयों में मिलने वाली औपचारिक शिक्षा ही औपचारिकता मात्र बनकर नवाचारों के नामपर दिखावा बनकर खानापूर्ति तक सीमित हो जाय तो यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि आखिर उच्च शिक्षित लोगों द्वारा भी मूर्खतापूर्ण किये जाने वाले निंदनीय कृत्यों के लिए जिम्मेदार कौन है?इसकी मूल वजह क्या है?तो इसका एकमात्र जबाव है कि आज की शिक्षाप्रणाली जिसतरह से क्रियात्मक व प्रयोगात्मक अनुभवों को प्रदान करने में विफल साबित हो रही है,उसी के चलते समाज में पढेलिखे मूर्खों की फौज अनैतिक व वर्ज्य कार्यों को करने में संलिप्त होती जा रही है।

    यहाँ यह दृष्टव्य है कि वर्ष 1998 के पूर्व उत्तर प्रदेश के माध्यमिक से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रत्येक सोपानों पर विज्ञान,मनोविज्ञान,गृहविज्ञान, भूगोल आदि विषयों का प्रयोगशाला आधारित व्यावहारिक ज्ञान अनिवार्यतः प्रत्येक विद्यार्थी को दिया जाता था।इतना ही नहीं विद्यालयों में आज की बनिस्पत बेहतर तरीके से गीत,संगीत,कला,व्यायाम व विभिन्न खेलों के उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथ स्काउट-गाइड,रेडक्रॉस व राष्ट्रीय कैडेट कॉर्प्स की व्यवस्था थी।जिसके चलते प्रति सप्ताह कमसेकम दो दिन प्रयोगात्मक विषयों का क्रियात्मक व व्यावहारिक ज्ञान विद्यार्थियों को प्रदान किया जाता था।किंतु 1998 में नवीन पाठ्यक्रम लागू होने के कारण प्रयोगात्मक विषयों की जो दुर्गति हुई औरकि आजतक अनवरत होती चली आ रही है,वह किसी से छिपी नहीं है।

    महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि हाथी दांत की तरह हाई स्कूल में आज भी प्रयोगात्मक व सत्रीय कार्यों का विधान है किंतु जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल जुदा है।हाई स्कूल में प्रत्येक विषय में 30 अंक का प्रोजेक्ट कार्य होने से जहां विद्यार्थियों को जबरिया विद्यालयों में ही बिकने वाली उत्तर पुस्तिकाएं क्रय करने हेतु बाध्य किया जाता है तो वहीं सीबीएसई व वित्तविहीन माध्यमिक विद्यालयों द्वारा प्रोजेक्ट में अच्छे अंक प्रदान करने की आड़ में प्रतिविद्यार्थी 500 से हजार रुपये तक कि खुलेआम उगाही की जाती है।वस्तुतः प्रोजेक्ट कार्य वित्तविहीन व सीबीएसई स्कूलों के लिए बड़े पैमाने पर लूट के सरकारी उपागम बन गए हैं,जबकि इनके यहां न तो प्रयोगशालाएं हैं और यदि हैं तो न ही उनमें कोई रसायन या उपकरण ही उपलब्ध हैं।इसे माध्यमिक शिक्षा का ही नहीं देश का दुर्भाग्य कहा जायेगा कि खुलेआम होने वाली इस लूट पर शासन और सरकार तथा अभिभावक भी खामोश हैं,चुप हैं तथा नम्बरों की बंदरबांट में शिक्षा का मखौल बनता जा रहा है।कहना अनुचित नहीं होगा कि कमोवेश यही हालत इंटर स्तरीय प्रयोगात्मक विषयों की शिक्षा का भी है।यहां प्रयोगात्मक विषयों हेतु निर्धारित कुल 30 अंकों में 15-15 अंक क्रमशः आंतरिक व बाह्य परीक्षकों को देने होते हैं।किंतु सत्य तो यह है कि एकएक दिन में 300 से 400 तक आवंटित विद्यार्थियों का प्रयोगात्मक कार्य परीक्षकों द्वारा संपादित करते हुए केवल जेबें गर्म की जा रही हैं।कदाचित प्रदेश का एक भी विद्यालय विशेषकर वित्तविहीन व सीबीएसई नहीं होगा जहां प्रैक्टिकल के नामपर कोई प्रयोग होता भी हो,सिवाय प्रतिविद्यार्थी प्रति विषय 700 से लेकर 15000 रुपये तक की उगाही के।अंत: माध्यमिक में प्रयोगात्मक परीक्षाओं का जो हश्र हो रहा है,उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि चिराग तले अंधेरा ही नहीं अपितु पूरी डाल ही काली है।

   प्रश्न जहाँतक महाविद्यालयी व विश्वविद्यालयी प्रयोगात्मक व्यवहारात्मक शिक्षण का है तो एडेड व सरकारी को छोड़कर यहाँ प्रयोगशालाएं महज हाथी दांत ही हैं।वित्तविहीन महाविद्यालयों में तो गणित,भौतिक,रसायन,जीव,वनस्पति,गृह व भूगोल तथा भूगर्भ विज्ञान जैसे विषयों के शिक्षक तक नहीं हैं।अनुमोदन किसी और का और पढ़ाता कोई और है।यहां नकल की व्यवस्था इतनी जड़तक पकड़ बना ली है कि कोई ही महाविद्यालय ऐसा होगा शायद जहां नकल न होती हो।दिलचस्प बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश के माध्यमिक विद्यालयों की बोर्ड परीक्षाओं में इक्का दुक्का घटनाओं को छोड़कर शायद ही कहीं नकल की शिकायत हो किन्तु महाविद्यालयों में स्थिति बिल्कुल इससे उलट है।निजी विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में नकल की नींव ही इन संस्थाओं की तरक्की का मूल है।यहां बोलबोलकर खुलेआम ठेके पर नकल धड़ल्ले से होती है,जिसे रोकने का कोई भी ठोस कारगर उपाय नहीं है।यही कारण है कि इन संस्थाओं में प्रयोगात्मक परीक्षाओं को भी पैसे के बलपर मैनेज किया जाता है।जिससे विद्यार्थियों को व्यावहारिक ज्ञान से वंचित होना पड़ रहा है।

    विद्यार्थियों में टीम भावना जागृत करने और समरसता तथा सामाजिकता को बढ़ावा देने के निमित्त खेलों व पाठ्येत्तर क्रियाकलापों का बड़ा योगदान होता है किंतु प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली विद्यालयी क्रीड़ा प्रतियोगिताओं का आंकलन करने पर स्प्ष्ट मालूम होता है कि 90 से 95 प्रतिशत इनमें प्रतिभाग ही नहीं करते जबकि इनके नामपर शुल्क की वसूली प्रतिमाह होती है।विद्यालयों में खेलों की दुर्गति का एक कारण जहां शिक्षकों की कमी तो दूसरी तरफ मृतक आश्रित शिक्षकों का होना भी है,जो कि आश्रित कोटे के फायदा उठाकर येनकेन बीपीएड या डीपीएड आदि डिग्रियों का जुगाड कर शिक्षक बन जाते हैं किन्तु अध्ययनकाल में कभी भी अच्छे खिलाड़ी नहीं होते हैं।जिससे क्रीड़ाओं को आयोजित करने व उनके हुनर सीखने का इनमें कोई इल्म नहीं होता है।कमोवेश यही हाल कला,संगीत व सिलाई जैसे विषयों के अध्ययन-अध्यापन का भी है।जिससे प्रयोगात्मक विषय भी केवल रटन्त व पुस्तकीय हो गए हैं और विद्यार्थियों में व्यावहारिक ज्ञान शून्य होता जा रहा है।

    अब प्रश्न उठता है कि क्या नई शिक्षानीति 2021 या महानिदेशक विजय किरण आनंद प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक दिनोंदिन व्यवहारिकता से दूर होती शिक्षा में कुछ गुणात्मक सुधार कर पायेंगें या नहीं?क्या केवल गूगल मीट या ऑनलाइन शिक्षा के नामपर चरित्र निर्माण व अच्छी आदतों के पुंज निर्मित होगा?शिक्षाशास्त्रियों के मुताबिक उत्तर प्रदेश के एकीकृत शैक्षिक अभिकरण के महानिदेशक केवल आएदिन ऑनलाइन सूचनाओं तक ही सीमित रहते हैं तथा प्रशिक्षण के नामपर शिक्षकों को नियमित शिक्षण से विरत रखते हैं,शिक्षक पत्राचार में पढ़ाने से ज्यादा व्यस्त रहते हैं,जोकि प्रयोगात्मक व व्यवहारात्मक शिक्षा की दिशा में ग्राह्य नहीं है।विद्वानों के मुताबिक जबतक प्रत्येक विद्यालयों में शिक्षण काल में प्रयोगशालाओं व खेलों का स्थलीय निरीक्षण करते हुए व्यापक पर्यवेक्षण व शिक्षण नहीं किया जाएगा तबतक नई शिक्षानीति का भी कोई प्रभाव नहीं होने वाला है।जिससे योग्य व चरित्रवान विद्यार्थियों की कमी आने वाले दिनों में भी स्प्ष्ट दृष्टिगोचर होती हुई दिखाई देती है।कदाचित समाज मे व्याप्त सभी प्रकार की बुराइयों की मूल वजह भी यही है।

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