Sunday, September 22, 2024
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मतभेद:कारण और निवारण–उदय राज मिश्रा

अंबेडकर नगर। किसी एक ही वस्तु या विषय के प्रति किसी भी व्यक्ति के विचार उसका मत कहलाता है किंतु उसी विषय या वस्तु के प्रति अन्यान्य लोगों का अपना-अपना दृष्टिकोण बहुधा एक समान नहीं होते हैं।विचारों की होने वाली यही भिन्नताएं ही मतभेद कहलाती हैं,जोकि व्यक्तिगत विभिन्नताओं के सिद्धांतों की प्रतिपुष्टि करती हुई कार्य विशेष के प्रारम्भ किये जाने से पूर्व विमर्श और मन्त्रणा की आवश्यकता पर बल देती हैं।

   वस्तुतः असली प्रश्न तो यह उत्तपन्न होता है कि किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष के रूप,रंग,गन्ध,कार्य,गुण-अवगुण आदि जोकि उनमें स्थायी भाव से उपस्थित होने पर भी लोगों के विचारों में साम्यता क्यों नहीं होती है?क्यों सभी लोग अपनी ढपली,अपना राग अलापते रहते हैं?आखिर इसकी मूल वजह क्या है।

   देखा जाय तो एक ही आधारशिला होने के बावजूद जब कोई वक्ता उसके विषय में एक बात कहता है,तो वहां जितने श्रोता उपस्थित रहते हैं व सब एक दूसरे से भिन्न भिन्न प्रकार के आशय ग्रहण करते हैं।सत्य तो यह है कि व्यक्ति की बुद्धि पर तामसी,राजसी या सात्विक गुणों का जितना प्रभाव होता है,उसी स्तर से वह वक्ता के कथन को सुनकर या किसी वस्तु को देखकर गूढ़ता को पकड़ पाता है।इससे आगे वह समझ नहीं पाता।यही स्थिति मतभेद कहलाती है।यहीं से विचारों में विभिन्नताएं दिखाई देती हैं।

   देखा जाय तो किसी एक ही सिंद्धान्त को कभी-कभी विभिन्न मतवादियों ने अलग-अलग देशकाल में भिन्न-भिन्न प्रकारों से परिभाषित किया है।जिससे साधारण मनुष्य संशय में पड़ जाता है,उसे भ्रम होने लगता है।ऐसी स्थिति में असली बात पहचान में ही नहीं आती।यह पता ही नहीं चलता कि यथार्थ क्या है?कौन सत्य है?यही मतभेद की सबसे बड़ी समस्या है।जिससे कोई पाठक या श्रोता किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले ही भ्रमजाल में पड़ जाता है,किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।

    यथार्थरूप से देखा जाय तो किसी आशय को उसके वास्तविक स्वरूप में समझने के लिए,जानने के लिए क्रमशः उसी स्तर पर चलकर समझा जा सकता है।तब पता चलेगा कि वक्ता के मनोगत भाव क्या थे?मनोगत समस्त भाव कभी भी कहने में नहीं आते हैं।कुछ कहने में तो कुछ भाव-भंगिमा में और जो शेष बचते हैं वे क्रियात्मक होते हैं।जिन्हें उनके ही स्तर पर जाकर समझा जा सकता है,अन्यथा मत वैभिन्न तय हैं।

   गीता में श्रीकृष्ण ने कौन्तेय अर्जुन को समझाते हुए कहा है कि-

“इदम शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते”

  अर्थात यह शरीर ही धर्मक्षेत्र भी है और कुरुक्षेत्र भी है।जिसमें बोया हुआ भला और बुरा बीज संस्काररूप से सदैव उगता है।दस इंद्रियां, मन,बुद्धि,अहंकार,पांचों ज्ञानेंद्रियों की रूप,रस,गन्ध,शब्द और स्पर्श रूपी पाँच तन्मात्राएँ, यही इंद्रियों के विषय हैं और तीनों गुणों का विकार ही इसक्षेत्र का विस्तार है।प्रकृति से उत्तपन्न इन गुणों से विवश होकर मनुष्य को कर्म भी करना पड़ता है,जोकि उसके विचारों के प्रतिफल होते हैं।व्यक्ति जैसा सोचता है,जैसा भाव रखता है,ठीक वैसा ही कर्म भी करता है।वह एकपल भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है।पुनरपि जननम पुनरपि मरणम,पुनरपि जननी जठरे शयनम यही असली कुरुक्षेत्र है किंतु जब तत्वदर्शी और अंतर्दर्शन से विवेक जागृत होने पर यथार्थ स्वरूप से परिचय होता है तब यह क्षेत्र ही धर्म क्षेत्र बन जाता है।इसप्रकार मतवैभिन्नता ही अंत:करण की दैवीय और आसुरी शक्तियों के जागृत होने का परिचायक होती है।

   मतभेद संदेह की जननी होता है।संदेह और जिज्ञासा विज्ञान की हेतु होती हैं जबकि यथार्थ से परिचय आस्था को जन्म देता है।इसप्रकार विज्ञान की चरमावस्था भी उसी परमसत्य की खोज की गतिशील प्रक्रिया है,जहां मतभेद समाप्त हो जाते हैं और वास्तविक की जगह यथार्थ सत्य का दर्शन होती है,अनुभूति होती है।यही अनुभूति जब सिद्धार्थ को होती है तो वे बुद्ध हो जाते हैं,विश्वामित्र को होती है तो ब्रह्मर्षि हो जाते हैं,महावीर को होती है तो कैवल्य की प्राप्ति का द्वार खुल जाता है,मीरा को मिलती है तो जहर भी अमृत बन जाता है,महात्मा मूसा को होती है तो बाइबिल लिख जाती है,जरथुस्त्र को होती है तो अहूर-मजदा अर्थात ईश्वर की उपासना द्वारा हृदय के विकारों को नष्ट करने का मार्ग मिल जाता तथा हजरत मुहम्मद को होती है तो जर्रे जर्रे में ख़ुदा ही दिखता है एवम आदि शंकराचार्य को होती है तो ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या का सत्य स्वरूप साक्षात प्रकट होता है।

    कदाचित यदि देखा जाय तो मतभेद की अवस्था श्लेष अलंकार जैसी होती है।जहाँ रहिमन पानी राखिए, को भिन्न भिन्न मतावलंबी अपने अपने अनुसार परिभाषित करते हैं।जैसे को पानी को मर्यादा,कोई मोती तो कोई चूना के अर्थ में प्रयुक्त करता है,जबकि मूल शब्द पानी ही रहता है।इसीप्रकार सुवरन को कोई सुंदर,कोई स्वर्ण तो कोई सुंदर अक्षर मानकर अपना अपना मत निर्माण करता है।श्लेष की यही अवस्था ही आलंकारिक होने के साथ ही साथ वैयक्तिक भिन्नताओं को जन्म देती है।यही कारण है कि संसार के कोई भी दो प्राणी,भले चाहे जुड़वा ही क्यों न हों,किसी न किसी प्रकार से सौ प्रतिशत एकसमान नहीं होते है।अतएव सबके मत भी एक ही होयं,यह आवश्यक नहीं है,हाँ विमर्श और मन्त्रणा द्वारा एक यथार्थ सत्य को ,यथार्थ स्वरूप को मूर्तरूप अवश्य दिया जा सकता है।तभी तो बड़े बुजुर्गों से मार्गदर्शन,गुरुओं से उपदेश और सहकर्मियों से मन्त्रणा करके बनायी गयी कार्ययोजना कभी भी  मतभेद का न तो शिकार होती है और न ही असफल।कदाचित भारतीय परिप्रेक्ष्य में सम्प्रति घरों में बड़े बुजुर्गों की दिनोंदिन बढ़ती उपेक्षा का ही यह दुष्परिणाम है कि आजकल की संतानें सबको संदेह की दृष्टि से न केवल देखने लगीं हैं,अपितु केवल अपनी उदरपूर्ति तक ही सीमित होती जा रही हैं।

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