Saturday, September 21, 2024
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प्रतिद्वंदिता में बदलती प्रतिस्पर्धा–उदय राज मिश्रा

अंबेडकर नगर। बात चाहे प्रतियोगी परीक्षाओं की हो याकि किसी खेल या फिर चुनावों की सबमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ही योग्य व उपयुक्तम का चयन करने का मापदंड होती है किन्तु जब निर्धारित मानकों व नियमों से इतर जा लोग येनकेन सफलता प्राप्त करने का कुचक्र रचते हुए अन्यमार्गों का अनुसरण करने लगते हैं तो परिस्पर्धा का यही खेल या चुनाव प्रतिद्वंदिता की भेंट चढ़ने लगता है।जिससे खोते सिक्के असली को प्रचलन से बाहर करने का कोई भी उपाय और हथकंडे अपनाने से परहेज नहीं करते।कदाचित कहना अनुचित नहीं होगा कि सम्प्रति परवान चढ़ रहा उत्तर प्रदेश का सूबाई चुनाव भी इससे अछूता नहीं है।जिससे चुनाव दिनोंदिन मर्यादा को तार तार करते हुए समाज को विखण्डित करते जा रहे हैं,जोकि विचारणीय है।

     वस्तुतः लोकतंत्र की मूल अवधारणा के पीछे स्वस्थ व  निष्पक्ष चुनावों की अहम भूमिका होती है।चुनावों द्वारा ही जनमानस अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए उपयुक्तम प्रत्याशी का बतौर प्रतिनिधि चयन करता है।जिस निमित्त स्वास्थ्य,सुरक्षा,शिक्षा,परिवहन,आवास,शौचालय,बिजली आदि मुख्य विषय विचारणीय चुनावी मुद्दे होते हैं किंतु आज़ादी प्राप्ति के पश्चात चुनाव दर चुनाव हर इलेक्शन मुख्य मुद्दों से इतर जाति,धर्म,अगड़े बनाम पिछड़े और हिन्दू बनाम मुस्लिम आदि में सिमटते जाने से जहां एकतरफ जनप्रतिनिधियों की जगह जातीय व धार्मिक नेतागण लेते जा रहे हैं वहीं इनके वक्तव्य सामाजिक समरसता को सतत तारतार भी कर रहे हैं।जिससे समाज में जाति और धर्म आधारित फूट होने से लोगों में एकदूसरे के प्रति नफरत तथा विद्वेष की भावनाएं बढ़ती हुई देखी जा सकती हैं।इसप्रकार समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता को त्याग अनीति और भ्रष्ट आचरण के प्रत्येक उपांगों द्वारा सफलता हासिल करने की जो प्रवृत्ति बलवती होती हुई दिख रही है वह सब राजनीति के चलते ही है।

      प्रतिस्पर्धा जहाँ वर्षों की निरंतर तैयारियों की एवज में किये गए सार्थक प्रयासों की द्योतक होती है वहीं प्रतिद्वंदिता द्वारा छद्म प्रयासों का आश्रय लेते हुए द्वेषवश योग्यों को अयोग्यों की जगह स्थापित करने का नाम है।प्रतिद्वंदिता केवल और केवल शत्रुतापूर्ण कृत्य की जननी होती है।कदाचित सम्प्रति जारी चुनाव इसी के ज्वलंत उदाहरण हैं।

     लोकतंत्र में वैचारिक विभिन्नताओं के आधार पर ही एक से अधिक दलों की अवधारणा स्थापित होती है किन्तु जब वैचारिकता प्रमाणों के अभावों में पराजित होती हुई दिखती है तो हारे लोग फिर से जनसेवा की भावना ले जनमानस के बीच जाने की बजाय विजेता या सत्तासीनों पर व्यक्तिगत या उनकी जाति व धर्म आधारित मान्यताओं पर प्रहार करते हुए सिद्धांतों की बजाय निजी व व्यक्तिगत शत्रुता पर आ जाते हैं तो यहीं परिस्पर्धा की भावना प्रतिद्वंदिता में बदल जाती है,जोकि नए सामाजिक सङ्घर्ष व वर्ग सङ्घर्ष को कालांतर में जन्म देती है।जिससे वास्तविक जनप्रतिनिधि या तो प्रत्याशी नहीं बन पाते और यदि बनते हैं तो अन्यों की तरह नीचता की हद पार नहीं करते।अलबत्ता ऐसे में वे चुनाव हार भी जाते हैं।इसतरह अपराधियों ,लफंगों और धनाढ्यों को प्रतिनिधि बनकर सदनों में बैठने का अवसर मिल जाता है औरकि यही हर चुनावों की रस्म बन जाती है।

    विडंबना ही कही जाएगी कि औरों से शराफत की उम्मीद करने वाली जनता भी अब नेताओं की राह चल परिस्पर्धा की बजाय सियासत के सहारे ही सबकुछ पाने और खाने की अभ्यस्त होती जा रही है।यही कारण है कि जो दल या व्यक्ति इनसे कर्मठता और मेहनत से कमाने की बात कहता है,उसे ये अपना वैरी मॉनते  हुए उसके प्रतिद्वंदी बनते जाते हैं।कमोवेश यह स्थिति आज समाज के हरेक तबके में देखी जा सकती है,जोकि चिंतनीय है।

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