अंबेडकर नगर। कहा गया है कि-
विद्या ददाति विनयम विनयात याति पात्रताम।
पात्रतात धनमाप्नोति धनाद धर्म:तत:सुखम।।
अर्थात विद्या से विनय,विनय से पात्रता और पात्रता से धन की प्राप्त की प्राप्ति होती है।यहां यह भी जिज्ञासा होती है कि अनुचित कृत्यों,जैसे घूस, डकैती,भ्रष्टाचार जैसे कार्यों से एकत्रित धन भी तो धन होता है।आखिर यह धन तो अनुचित तरीके से उगाही किया हुआ होता है तो ऐसे धन और येनकेन किसी भी प्रकार से संचित धन की गतियां क्या क्या हैं?
गोस्वामी तुलसी जी ने धन की गति बताते हुए लिखा है कि-
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
अर्थात जिस धन की प्रथम गति हो वही सर्वोत्तम धन है।
पँचतंत्रम में भी विष्णु शर्मा ने लिखा है कि-
दानम भोगो नाशः तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिः भवति।।
अर्थात दान,उपभोग और विनाश -ये धन की तीन गतियां हैं।जो मनुष्य न तो धन का दान करता है,न ही उसका उपभोग करता है तो उसके धन की तीसरी गति अर्थात विनाश ही होती है।अतः व्यक्ति को धन का दान और उपभोग अवश्य करना चाहिए।
विश्व के सभी धर्मों में दान करने हेतु प्रेरित किया गया है।मुसलमान जकात करते हैं,हिन्दू दान देते हैं और ईसाई भी डोनेट करते हैं।एक ही कार्य अलग अलग नामों से होता है।कदाचित यही धन के सर्वोत्तम सदुपयोग की सर्वोत्तम गति भी है।
कुछ तर्कशास्त्री तो ये कहेंगें कि धन को दान देना बुरी बात है क्योंकि इससे उनका कोष खाली हो जाएगा और वे भी अर्थहीन हो जाएंगे तो उनके लिए बस इतना ही कहना है कि -अति सर्वत्र वर्जयेत।अर्थात दान और उपभोग दोनों ही यथाशक्ति करना चाहिए।अपनी आवश्यकताओं को कम करके भी यदि किसी कमजोर की मदद कर सकें तो करना चाहिए।अति किसी भी चीज की सुंदर नहीं होती।
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि येनकेन कमाये गए,बचाये गए या लूटखसोट से भरे गए धन का रक्षण कैसे सम्भव है?क्या बैंक में लॉकर बन्द करने से या घर ने गाड़ देने से धन सुरक्षित और कोई भी व्यक्ति ऐसा करके धनी हो सकता है?हरगिज नहीं।क्योंकि पंचतंत्र में धन के रक्षण की सुंदर व्याख्या इस प्रकार की गई है-
उपार्जितानां अर्थानां त्याग एव हि रक्षणम।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इव अम्भसाम।।
अर्थात उपार्जित अर्थात पैदा किये गए धन का दान करना ही उसका रक्षण है।जैसे तालाब के भीतर के जल की रक्षा उससे नाला बनाकर खेत मे बहा देना ही रक्षण है अन्यथा तालाब का पानी पड़ा पड़ा गन्दा भी हो जाता है।
गोस्वामी तुलसी जी फिर लिखते हैं कि-
तुलसी पक्षिन के पिये घटे न सरिता नीर।
दान दिए न धन घटे जो सहाय रघुवीर।।
रहीमदास भी दान की महिमा का सुंदर गुणगान करते हुए कहते हैं-
देनहार कोई और है राति दिवस सो देन।
लोग भरम मुझपे करें तातो नीचो नैन।।
शास्त्र कहते हैं कि देने वाले का हाथ ऊपर होता है।इसे ही इज्जत कहते हैं।जो लेता है,उसका हाथ नीचे होता है,इसे ही जिल्लत कहते हैं।अतः हमें जीवन में कभी भी कृपणता नहीं अपनानी चाहिए।
देहातों में रख कहावत प्रचलित है-
सोमे कै धन शैतान खात हैं।
सोम अर्थात कंजूस का धन न वह खाता है,न उचित व्यय करता है,दान तो देता है नहीं है।ऐसे कृपण का धन शैतान खाता है अर्थात नष्ट हो जाता है।
प्रख्यात कवि दिनकर जी भी लिखे हैं-
दान प्रकृति का सहज धर्म
तूँ क्यों इससे डरता है।
एकदिवस तो सबकुछ ऐसे
हमको देना पड़ता है।।
अर्थशास्त्री भी कहते हैं कि धन को बचाकर चोरी से रखने वाले कि तुलना में वह व्यक्ति धनी से जो उचित व्यय करता है।अतः हमें कृपणता को त्यागकर यथाशक्ति दान करने की आदत डालनी चाहिए।परोपकार और अच्छे कार्यों में लगाया गया धन कभी निष्फल नहीं होता है।यही संचित पुण्य के रूप में हमें फिर फिर प्राप्त होता है।जिससे हमारी जीवन यात्रा चलती रहती है।इस प्रकार दान करना ही धन की सर्वोत्तम गति है।यही वजह है कि भारतीय वाङ्गमय में कृपणता को निंदनीय कृत्य मानते हुए कहा गया है-
न ददाति न चाश्नाति धनम रक्षति जीववत।
प्रातःस्मर्णीयत्वात कृपण:कस्य नाप्रिय:।।
वस्तुतः धन चंचला लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है,जो अपनी तीनों गतियों से होता हुआ मनुष्यों के उत्थान-पतन का कारक बनता है।अतएव धनार्जन करते हुए संचय और संयमित दान और भोग ही विद्वानों के अनुसार धन की सर्वोत्तम गति कहे गए हैं अन्यथा तृतीय गति तो स्वत्:आमंत्रित हो जाती है।हांलाकि धन की सार्वभौमिक महत्ता किसी भी स्थिति में कम नहीं होती।चाहे यह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति के पास या जगह पर हो।कहा गया है कि-
यस्यास्य वित्तम स पुरुष:कुलीन:।
सर्वे गुणा:कांचनम आश्रयन्ते।।
यही नहीं धनहीनता अर्थात दरिद्रता को संसार का सबसे बड़ा दुख भी माना जाता है।श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी जी लिखे हैं-
नहिं दरिद्र सम दुख जगमाहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
सुभाषितरत्नभंडागारम में भी अर्थ की प्रधानता का वर्णन करते हुए कहा गया है-
टका हर्ता टका कर्ता टका हि परमं धनम।
यस्य पार्श्वे टका नास्ति टका बिना टकटकायते।।
किन्तु इस सबके बावजूद धन की तृतीया गति को अधम मानते हुए अर्जन और संचय तथा संयमित दान व उपभोग को ही उत्तम माना गया है।