@ एन. सुगालचन्द जैन
अयोध्या। जैन साधुओं ने संपूर्ण साधु समुदाय में अपने धर्म के निमित्त किए जाने वाले कठोर व्रत, दिनचर्या, आचरण व नियम व्यवहार को लेकर विशिष्ट पहचान बनाई हैं। इन विशिष्टताओं के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इन्हीं विशेषताओं के बारे में हम आज इसका जिक्र करेंगे।
जैन साधु अपने आहार विहार में वह किसी को कष्ट नहीं देते है । न किसी प्रकार के संग्रह की भावना रखते है। वे भ्रमर के समान किसी एक कुल जाति या व्यक्ति पर आश्रित न होकर अनेक घरों से थोडा-थोडा सरस – नीरस नाना प्रकार का निर्दोष व प्रासुक आहार-पानी लेकर संयम पूर्वक रहते है। वह लाभ-अलाभ में संतुष्ट रहना ही इनका स्वभाव है।
वह संयम धर्म में स्थिर, परिग्रह से मुक्त और षट्कायिक जीवों के रक्षक है। क्रोध, लोभ और भय के वश वस्तुओं का सेवन नहीं करते है। प्रण का महत्त्व प्राणों से भी अधिक समझते है। जैन निर्ग्रन्थ धैर्यवान और निस्पृह होते है। गृहस्थ से सेवा नहीं लेते है। जैन श्रमण शरीर की शोभा के लिए धूप, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, अंजन, दातून शरीर पर तैल-आदि की मालिश और विभूषा आदि का उपयोग नहीं करते हैं।
मुनि उष्णकाल में ताप सहते है, शीत काल में खुले बदन शीत सहन करते है ,और वर्षा ऋतु मै कायिक चेष्टाओं का संगोपन कर समाधि भाव में लीन रहते हैं। सम्मुख लाया हुआ आहार आदि नहीं लेते है। रात्रि भोजन-त्याग श्रमण का छठा व्रत है। रोग को समभाव से सहन करते हैं और चिकित्सा का अभिनन्दन नहीं करते है। आये हुए परिषहों को शांत भाव से सहन करते हैं।
जैन मुनि महाव्रती होने से पूर्ण अहिंसक होते है। जैन साधु किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते है। संयम यात्रा के निर्वाह और शरीर-धारण के लिए ही आहार करते है। साधु दब दब करते हुए तेज नहीं चलते है, हंसते हुए एवं बाते करते हुए भी नहीं चलते है।(दसैव कालिक सूत्र , आचार्य हस्तिमलजी महाराज )