अम्बेडकर नगर। भले ही यह पढ़ने में बिना सिर पैर का सुनने में बेतुका लगे किंतु है यथार्थ सत्य,जोकि अगले चार पाँच सालों बाद स्पष्ट रूप से न केवल दृष्टिगोचर होगा अपितु लाईलाज मर्ज की तरह समाज का कोढ़ बनेगा। जी हाँ, आजकल माध्यमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों विशेषकर वित्तविहीन शैक्षिक संस्थानों में भौतिक,रसायन,जीव विज्ञान,वनस्पति विज्ञान,भूगोल,मनोविज्ञान आदि प्रयोगात्मक विषयों की वर्षपर्यंत लैब वर्क न होना औरकि परीक्षाओं के दरम्यान नियुक्त परीक्षकों द्वारा विद्यार्थियों से मोटी रकम वसूल करते हुए बगैर प्रयोगात्मक परीक्षण के ही उत्तर पुस्तिका लिखवाकर अंक दिए जाने से मूर्खों की फौज काले बादल की तरह सर ओर मंडराने को आतुर है।यही प्रयोगात्मक कार्य के ज्ञान से शून्य शिक्षित लोग अब शिक्षक बनते जा रहे हैं।जिससे यह प्रश्न सहज ही उठना लाजिमी है कि छात्र जीवन में कभी भी प्रयोग न करने वाले शिक्षक बतौर शिक्षक किसतरह प्रयोग करवायेंगे।कहना अनुचित नहीं होगा,यही स्थिति विद्या के बंटाधार की स्थिति होगी।
शिक्षा के समाजशास्त्रीय व मनोवैज्ञानिक आधारों के अनुसार पूरी शिक्षा प्रणाली को बालकेन्द्रित माना गया है।जिसके अनुसार खेल-खेल में सीखना(प्ले वे मेथड),करके सीखना(लर्निंग बाई डूइंग),अनुभव व प्रशिक्षण से सीखना(लर्निंग थ्रू एक्सपीरिएंस एंड ट्रेनिंग) जैसे शिक्षण सिद्धांतों का अनुसरण करती हुई मांटेसरी शिक्षण प्रणाली,आगमन-निगमन,प्रयोग प्रदर्शन,क्रियात्मक और प्रयोगशाला विधि जैसी शिक्षण पद्धतियों का आश्रय ले शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया सतत गतिमान होती रहती है।कदाचित कहना अनुचित नहीं होगा कि कम्प्यूटर और मोबाइल के अधिकाधिक प्रयोग के चलते जहां मानवशक्ति की आवश्यकता कम हुई है वहीं शिक्षा में इनके बढ़ते दखल और इनके चलते वैज्ञानिक,कृषि,भूगोल,गृहविज्ञान,मनोविज्ञान जैसे विषयों में घटते प्रयोग जहाँ रटन्तु और पुस्तकीय ज्ञान को बढ़ावा दे रहे हैं वहीं विद्यार्थियों के अंदर कौशल की भी कमी देखी जा रही है।अस्तु नवाचारों के नामपर कम्प्यूटर और मोबाइल के सहारे आश्रित हो चुकी शिक्षा व्यवस्था अब कोरी पुस्तकीय के सिवा और कुछ नहीं है।कदाचित यही चिंतनीय व सोचनीय प्रश्न आज शिक्षाशास्त्रियों के लिए सिरदर्द तो सरकारों के लिए मितव्ययिता और श्रेय का साधन बनता जा रहा है,जोकि घातक है।
वस्तुतः 14 अक्टूबर 1986 के उपरांत वित्तविहीन व्यवस्था के अंतर्गत संचालित माध्यमिक व महाविद्यालयी शिक्षण संस्थानों की बाढ़ सी आ रही है किंतु सबसे चिंतनीय स्थिति तो यह है कि 1998 से लागू एकसमान पाठ्यक्रम में हाई स्कूल स्तर पर विज्ञान वर्ग की प्रयोगात्मक परीक्षा महज खानापूर्ति करके जो व्यवस्था की गयी है वह आज इंटर स्तर के साथ साथ महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में भी कमोवेश लागू हो गयी है।यदि 1986 के पूर्व के राजकीय व सहायता प्राप्त विद्यालयों की स्थिति का आंकलन किया जाय तो ऐसे संस्थानों में मानक के अनुसार निर्मित प्रयोगशालाएं तो दिखेगीं जिनकी हालत 1998 से बदतर होती गयी।जबकि यदि वित्तविहीन विद्यालयों की समीक्षा की जाय तो 99 प्रतिशत विद्यालयों में जहां प्रयोगशालाएं ही नहीं हैं और यदि कहीं हैं भी तो उनमें प्रयोग करवाने की दक्षता नहीं है।इसप्रकार आज माध्यमिक से लेकर विश्विद्यालय स्तर तक वैज्ञानिक वर्ग के साथ-साथ कृषि,मनोविज्ञान,गृहविज्ञान और भूगोल जैसे वर्गों का शिक्षण भी महज औपचारिकता बनकर रह गया है।सम्बंधित विषयों के प्रयोग किसी दिखावे से अधिक नहीं हैं।जिन्हें एक ही दिन में पुरानी फाइलों के सहारे लिखकर और प्रैक्टिकल के दिन कमसेकम 100 रुपये तथा 5000 से 10000 तक कि उगाही करके परीक्षकों को घूस देकर विद्यालय केवल अच्छे अंक दिलाने में ही अपनी वाहवाही समझ रहे हैं।इस कुव्यवस्था के शिकार विद्यार्थियों के मानसिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन तथा उनकी कौशलविहीनता की तरफ कोई देखने वाला भी नहीं है।यही कारण है कि आज पढेलिखे स्नातकों,निष्णातों के साथ -साथ तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोग भी चपरासी जैसी नौकरी के लिए आवेदन करते हुए देखे जा सकते हैं।बच्चों का अपनेआप पर कम होता आत्मविश्वास ही आज देश में घटती प्रतिभाओं और बढ़ती बेरोजगारी का भी एक नियामक और जिम्मेदार कारक माना जा सकता है।
व्यावहारिक रूप से यदि किसी भी वित्तविहीन विद्यालय की प्रयोगशाला या फिर किसी राजकीय या सहायताप्राप्त संस्थान की लेबोरेट्री का निरीक्षण किया जाय तो करीब करीब शतप्रतिशत शिक्षक भी आज पाठ्यक्रम में निर्धारित प्रयोगों से अनभिज्ञ दिखेंगें।शिक्षकों का प्रयोगों को लेकर यह भाव कदाचित सरकारी नीतियों और प्रबंधनों द्वारा भी प्रयोग के नामपर केवल उगाही होंने के कारण ही है।सत्य तो यह भी है कि बिना प्रयोगों के ही विज्ञान,कृषि और अन्य प्रायोगिक विषयों से उत्तीर्ण स्नातक तथा निष्णात भी परखनली तथा उनमें प्रयुक्त कांच की गुणवत्ता से अनभिज्ञ दिखते हैं।बच्चों से पहले यही शिक्षक ही प्रयोग के नामपर भगते हैं।जिससे बच्चों को प्रयोग करने का अवसर न तो देते हैं और न उन्हें प्रोत्साहित ही करते हैं।
देश में क्षीण होती प्रतिभाओं के संवर्धन हेतु नवाचार आवश्यक अवश्य हैं किंतु प्रयोगात्मक विषयों की शिक्षा केवल इनके हवाले करना किसी राष्ट्रद्रोह से कम नहीं है।नवाचार तो प्रयोग करने की विधाओं में होने चाहिए न कि प्रयोगविहीन शिक्षा करने के लिए।प्रायः देखा जाता है कि गणित,हिंदी,कला,संस्कृत,अंग्रेज़ी आदि विषयों में किये गए नवाचार ज्यादा कारगर होते हैं जबकि वैज्ञानिक व प्रायोगिक विषयों में किये गए नवाचार विद्यार्थियों को केवल पुस्तकों तक ही केंद्रित करते हैं।अतः शिक्षा पुस्तक केंद्रित होने की वजह से बालकेन्द्रित होने की संकल्पना भविष्य के गर्त में छिपती जा रही है।कदाचित यह स्थिति देश में चिकित्सा,अभियांत्रिकी,सूचना प्रौद्योगिकी व बुद्धिपरीक्षण आदि क्षेत्रों के लिए खतरे की घण्टी और गुणवत्ता के गिरते स्तर की प्रमुख जिम्मेदार कारक है।प्रख्यात दार्शनिक रूसो ने रटन्तु शिक्षा की तुलना उस कच्चे आम से की है जिसे पकाने पर वह सड़ जाता है।अतएव परिस्थिति चाहे जो भी हो किन्तु विचारणीय प्रश्न यह अब भी जस का तस है कि आखिर विद्यालयों में प्रायोगिक विषयों की परीक्षाएं व तत्सम्बन्धित दैनिक प्रयोग कक्षा शिक्षण के पुनः अंग कब बनेंगें
अस्तु शिक्षा को पुस्तकीय व रटन्तु बनाने की बजाय हाई स्कूल स्तर से ही पुनः प्रायोगिक विषयों की शिक्षा व्यवस्था सुदृढ करना ही प्रतिभाओं के सम्यक विकास और दक्ष लोगों को आगे बढ़ने में सहायक होगी।