अंबेडकर नगर। मजबूत और जिम्मेदार विपक्ष किसी भी लोकतंत्र का रीढ़ होता है।लोकतंत्र की इसी अवधारणा के चलते लोकसभा से लेकर प्रान्तों की विधानसभाओं तक में नेता प्रतिपक्ष के संवैधानिक पद की व्यवस्था औरकि तत्सम्बन्धित प्रोटोकाल भी संविधान में वर्णित हैं।कदाचित सदनों में नेता प्रतिपक्ष को लेकर की गई यह संवैधानिक व्यवस्था विपक्ष के दायित्व और औचित्यपूर्ण कर्तव्यनिर्वहन तथा फ़र्ज़ की अनिवार्यता की ग्राह्यता के कारण ही है।
किंतु आज के परिप्रेक्ष्य में जबकि विपक्ष की सम्पूर्ण राजनीति जाति और धर्म आधारित ध्रुवीकरण से लेकर महज सत्ता प्राप्ति तक ही दिखती है तो जनसामान्य के भी मुंह से सहज निकलता है कि अब विपक्ष फ़र्ज़ और दायित्वों के निर्वहन से कोई ताल्लुक नहीं रखता है।
कदाचित देश मे बढ़ते दुर्भावनापूर्ण कृत्यों के पीछे कहीं न कहीं विपक्ष की भी यही कुत्सित विचारधारा जिम्मेदार है।अब तो विपक्ष की फर्ज अदायगी रस्म अदायगी तक भी नहीं दिखती,जोकि यक्ष प्रश्न है।
स्वस्थ समाज और शक्तिशाली राष्ट्र की संकल्पना किसी भी देश की राजनैतिक व्यवस्था की मूल अवधारणा होती है।जनसामान्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सत्ताधारी दलों द्वारा बनाई जाने वाली नीतियों और सदनों में पेश बिलों पर समलोचनात्मकपूर्ण समीक्षा विपक्ष की ही जिम्मेदारी होती है।
कमोवेश यह स्थिति विद्यालयों में किसी प्रकरण पर विद्यार्थियों के दो समूहों में पक्ष और विपक्ष के रूप में डिबेट जैसी ही होती है।जिससे सत्तापक्ष अधिनियमों एवम प्रस्तावों में मौजूद कमियों के निराकरण करते हुए उन्हें और भी जनोपयोगी बनाने में सफल होता है।विपक्ष इस बाबत मत विभाजन के प्रस्ताव को भी ब्रह्मास्त्र के रूप में व्यवहृत कर सकता है।
बात चाहे 15 अगस्त 1947 से पूर्व गठित अस्थायी सरकार का हो या 1952में हुए प्रथम स्वतंत्र आम चुनावों से लेकर अबतक हुए औरकि निकट भविष्य में होने जा रहे चुनावों की हो,तबसे अबमें जमीन आसमान का फर्क है।तब के सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने अपने फर्जों और दायित्वों के निर्वहन के प्रति सजग थे।
उनमें लोक लाज और लज़्ज़ा के साथ-साथ सेवाभाव था किंतु आज के नेताओं में फर्ज और दायित्व दोनों का ही लोप होने से स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।जिससे देश मे जातीयता,कट्टरता और वर्ग संघर्ष जैसी समस्याएं मुंह बाती जा रही हैं।इसके लिए धार्मिक नेताओं की अनदेखी औरकि धर्म विशेष जाति विशेष का तुष्टिकरण तथा सत्ता की लिप्सा विशेषरूप से जिम्मेदार है।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में फ़र्ज़ और दायित्व निर्वहन के अनेकों जीवंत उदाहरण हैं।जिनका अनुसरण करके भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।स्वयम प्रधानमंत्री रहते हुए भी नेहरू जी द्वारा प्रतिपक्ष के नेता अटल जी को संयुक्त राष्ट्र संघ में देश का प्रतिनिधित्व करने हेतु भेजा जाना वैश्विक लोकतंत्र के लिए महाप्राण स्वरूप उदाहरण है।
इतना ही नहीं अटल जी ने जिस शान से भारत सरकार का पक्ष संयुक्त राष्ट्र संघ में रखते हुए अपना ओजस्वी वक्तव्य दिया वह 1893 में स्वामी विवेकानंद जी के पश्चात सर्वाधिक लोकप्रिय भाषण है।किंतु आजबके भारत में ऐसे उदाहरण व्यवहृत औरकि पुनरावृत्ति के बजाय कागजी अभिलेखों के विषय वस्तु बनकर रह गए हैं,जोकि सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के ही लिए शर्मनाक है।अतएव सशक्त राष्ट्र की संकल्पना के सफलीभूत हेतु सत्तापक्ष को भी विपक्ष का यथोचित सम्मान रखना नितांत आवश्यक है।
आज के परिप्रेक्ष्य में सत्तापक्ष और विपक्ष लोकतंत्र की दो धुरी होने के बजाय सांप और नेवले जैसे बनकर रह गए हैं।विपक्ष सदैव इसी ताक में रहता है कि कितनी जल्दी सत्तापक्ष को जातिगत या धार्मिक मुद्दों पर उलझाकर बदनाम किया जाय।
यही नहीं आड़े हाथ आंदोलनकारियों को फंडिंग करते हुए शांतिपूर्ण आंदोलनों को भड़काया जाए जिससे हिंसक वातावरण बने और मतों का ध्रुवीकरण हो।दिलचस्प बात तो ये है कि ये राजनेता कभी भी अपनी सांसद या विधायक निधियों द्वारा किये गए जनहित के कार्यों को सार्वजनिक नहीं करते।जानकर सूत्रों के अनुसार 5 प्रतिशत नेताओं को छोड़कर शेष 95 प्रतिशत अपनी निधियों का आवंटन 40 से 50 प्रतिशत तक कमीशन लेकर करते हैं।यही कारण है कि आमजनता सदैव इन निधियों को समाप्त करने की मांग करती रहती है।
आज जबकि डोकलाम और गलवान घाटी की भिड़ंतों के बावजूद धोखेबाज चीन अरुणांचल से लद्दाख तक भारत को घेर रहा है तथा पाकिस्तान चीन से युद्ध के बीच द्वि फ्रंट युद्ध की तैयारी कर रहा है तो ऐसे में विपक्ष द्वारा देशहित के इस मसले पर चुप्पी साधना अत्यंत चिंताजनक है।भारत द्वारा रूस से एस 400 लेने की घटना को विपक्ष द्वारा चर्चा का बिंदु न बनाया जानायह दर्शाता है कि देशहित के मुद्दों और मसलों के प्रति विपक्ष की भूमिका फर्ज और दायित्व से दूर भागने जैसी है,जोकि सोचनीय है।