अंबेडकर नगर। किसी विद्वान ने लिखा है-
“न तेग चलाओ,न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल,अखबार निकालो।।”
किसी भी देशकाल परिस्थिति में अखबारों की सार्वभौमिक अपरिहार्यता और महत्ता को दर्शाती उक्त पंक्तियां कहना गलत नहीं होगा की समाचारपत्र किसी भी प्रजातांत्रिक देश में मानवीय मूल्यों,संवेदनाओं और जनमानस की समस्याओं को देश के रहनुमाओं तक पहुंचाते हुए गांव गरीबों के मुखौटा होते हैं।समाचारपत्र एकप्रकार से किसानों,विद्यार्थियों,वंचितों,महिलाओं,शिक्षकों, कामगारों तथा लोक साहित्य आदि के क्षेत्र में अनदेखे और उपेक्षित समाजों के भी प्रवक्ता होते हैं,जो संसद में जनता की आवाज बनकर लोगों के ध्यान आकृष्ट कराते हैं।यही कारण है कि न्यायपालिका,विधायिका और कार्यपालिका के पश्चात मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा तक कहकर संबोधित किया जाता है।
पत्रकारिता विशेषकर हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत यद्यपि आज से लगभग दो सदी पूर्व 30 मई 1826 को कानपुर निवासी पण्डित जुगुल किशोर शुक्ल द्वारा सर्वप्रथम बंगाल में की गयी थी।जबकि उन्होंने प्रत्येक मंगलवार को प्रकाशित होने वाले अविभाजित भारत के प्रथम हिंदी साप्ताहिक समाचारपत्र उदण्ड मार्तंड का प्रकाशन और सम्पादन शुरू किया था।यद्यपि पराधीन भारत में अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध जनमानस की आवाज बनते हुए अन्याय के प्रतिकार का जो बीड़ा पण्डित जुगुल किशोर शुक्ल ने उठाया था वह धनाभाव के कारण महज 79 संस्करणों में ही सिमट कर रह गया किन्तु अपने आगाज से हिंदी पत्रकारिता की जो अलख उद्दंड मार्तंड से जलायी आज वह देदीप्यमान होकर सम्पूर्ण जगत को प्रकाशमान कर रही है।परिवर्तन का जो बिगुल उद्दंड मार्तंड से बजा था आज देश देश शहर शहर विभिन्न संस्करणों से होता हुआ नित्यप्रति नये नए कीर्तिमानों को प्राप्त करता जा रहा है किंतु फिर भी आज की पत्रकारिता के समक्ष जितनी चुनौतियां हैं,शायद उतनी पराधीन भारत में भी नहीं रहीं होंगीं,जोकि विचारणीय है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता एक चुनौती के साथ-साथ उद्योग घरानों की बपौती बनती जा रही है,यही स्थिति देश की स्वतंत्र पत्रकारिता और पत्रकारों के लिए अत्यंत कष्टकारी है।जिससे राजसत्ता जहां दिनोंदिन निरंकुश होती जा रही है तो निष्पक्षता की मिसाल बनी पत्रकारिता पर भी राजनैतिक कलई चढ़ने के आरोप आयेदिन लगते रहते हैं।निःसन्देह यह स्थिति पत्रकारों की निष्पक्षता से अधिक उनकी बौद्धिकता और कर्तव्यपरायणता पर प्रश्नचिन्ह है।इस स्थिति से स्वयम पत्रकारों को ही निकलना होगा अन्यथा वे जनमानस की आवाज की बजाय उद्योग घरानों की आड़ में राजनैतिक दलों के प्रचारक से इतर कुछ और नहीं बन पायेंगें।जिससे लोकतंत्र की चौथी दीवार जहां चुटहिल होगी तो वहीं उद्दंड मार्तंड की मूल भावना में छिपा संदेश भी व्यर्थ ही साबित होगा।जिससे सामाजिक व वैचारिक परिवर्तनों की जो अजस्र धारा प्रवाहित होने की संकल्पना पत्रकारिता के मूल में निहित है,वो भी चुटहिल होगी,कमतर होगी औरकि ऐसा होता हुआ दिखाई भी दे रहा है।
यथार्थरूप में यदि कहा जाय तो आज की पत्रकारिता अन्वेषी कम मलाईदार भोजन की चाहत में ज्यादा पड़ी रहती है।थानों,कचहरियों,अधिकारियों,सरकारी दफ्तरों,राजनैतिक लोगों आदि की गणेश परिक्रमा करना आज के अधिकतर पत्रकारों की दिनचर्या बन चुकी है।जिसकी जांच में ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकारों को उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ रहा है।सोशल मीडिया द्वारा मोबाइल से बनने वाले पत्रकारों की स्वयम्भू फौज आज राष्ट्रीय एवम प्रांतीय समाचारपत्रों,दूरदर्शन चैनलों आदि पर भारी पड़ रहे हैं।जिससे मूर्खों की जो फौज स्वयम को पत्रकार कहती हुई मैदान में इधर उधर पत्रकार बनकर दौड़ रही है,वही पत्रकारिता की सबसे बड़ी शत्रु और लोककल्याण में बाधक है।अतः प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया और सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय को अनियमित तरीकों से स्वयम को पत्रकार कहते हुए पीत पत्रकारिता करने वाले वेब पोर्टलों, चैनलों,ब्लागों आदि पर सख्त पाबंदियां आयत करनी चाहिए।
देखा जाय तो मीडिया संस्थानों में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति पत्रकार नहीं होता है।जबकि आज मोबाइल लेकर घूमने वाले भी स्वयम को कुलदीप नैयर व खुशवंत सिंह से कम नहीं समझते हैं।किसी भी समाचारपत्र समूह में सबसे निचले पायदान पर हॉकर, फिर संवाद सूत्र,फिर तहसील,फिर जिला और जिलों पर डेस्क प्रभारी संवाददाता होते हैं।इन्हें कोरेस्पोंडेंट कहा जाता है।ध्यातव्य है कि स्वयम जिला संवाददाता भी पत्रकार नहीं होता है।जिलों से मुख्यालय पर जाने वाली खबरों को डेस्क प्रभारियों,जो प्रायः उपसंपादक होते हैं,के द्वारा गुणदोष के आधार पर एडिट किया जाता है।समाचारों को एडिट करने वाले औरकि नियमित रूप से 6 घण्टों की वैतनिक ड्यूटी करने वाले ही पत्रकार होते हैं।जिनके ऊपर समाचार सम्पादक,मुख्य सम्पादक और प्रबन्ध सम्पादक जैसे अति वरिष्ठ पत्रकार पदस्थ होते हैं।
आज मूल्यों के बढ़ते क्षरण से पत्रकार भी अपने को बचाने में मुश्किल हालातों का सामना कर रहे हैं।सही खबरों के प्रकाशन पर माफियाओं के डर,असुरक्षा, अल्प वेतन और कड़ी ड्यूटी आदि ऐसे मुख्य कारण हैं जिनके कारण पत्रकारों का बड़ा वर्ग अधिकारियों और नेताओं का चारण तक बनता जा रहा है,जोकि देश की एकता,अखंडता और समता मूलक समाज की स्थापना में बड़ा बाधक है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि आज की मीडिया निष्पक्ष रहे।जिसके लिए पत्रकारों को उच्च वेतनमान,उनके रहने के लिए आवास,रिफ्रेशर कोर्स और बदलते विश्व मे उनकी चुनौतियों से उन्हें सावधान किया जाना भी आवश्यक है।