अंबेडकर नगर। परीक्षाओं को सीखे गए ज्ञान कौशल और योग्यताओं के मापन का निकष कहा जाता है तथा मूल्यांकन किये गए लिखित कार्यों का अंकीय परीक्षण।यही कारण है कि परीक्षा शब्द को परित: दृष्यति इति परीक्षण: कहकर विद्वानों ने परिभाषित किया है।जिससे यह प्रमाणित होता है कि जो मापनी व्यक्तियों या परीक्षार्थियों के मानस में अवधारित स्मृति स्वरूप ज्ञान के बाह्य प्रस्तुतीकरण सहित प्रयोगात्मक और व्यवहारात्मक दोनों ही प्रकार की उपलब्धियों का सटीक व यथार्थ मापन करती है,वही प्रक्रिया परीक्षण अर्थात मूल्यांकन और प्रकारांतर से वास्तविक परीक्षा कहलाती है।किंतु पिछले कुछ दशकों से शिक्षा के लिए जिम्मेदार कारकों,अभिभावकों,शिक्षकों,प्रबंधकों और शिक्षाधिकारियों के अंदर हुए नैतिक क्षरण व बढ़ते कदाचार से परीक्षा प्रक्रिया ही नहीं अपितु उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन को लेकर शिक्षकों पर बढ़ते दबावों के बीच सरकारों व अधिकारियों का दिनोंदिन घटता विश्वास पूरी शिक्षा व्यवस्था को चौपट सा करता हुआ दिखाई देता है,जोकि शुभ संकेत नहीं है।हालांकि इसे कलंकित करने वालों की संख्या अधिक नहीं है,तथापि आज अविश्वास के बीच संगीनों के साये में होने वाली परीक्षाएं और उत्तर पुस्तिकाओं के मुल्यांक निःसन्देह शिक्षाजगत के लिये किसी काले धब्बे से कमतर नहीं हैं।जिनके लिए कुछ हदतक तो स्वयम शिक्षक समाज भी कम उत्तरदायी नहीं कहा जा सकता है।अलबत्ता इनकी हिस्सेदारी भले ही अत्यंत न्यून हो किन्तु एक सड़ी मछली ही पूरे तालाब को दूषित करने के लिए पर्याप्त मानी जाती है।कमोवेश आज शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग भी इन्हीं का शिकार होता हुआ दिख रहा है।
परीक्षाएं निष्पत्तियों की मापक व उपलब्धियों की द्योतक होती हैं।परीक्षाओं के द्वारा ही विद्यार्थियों की मानसिक स्थिति तथा उनकी बौद्धिक क्षमताओं का आंकलन करते हुए भविष्य के मद्देनजर शैक्षिक मार्गदर्शन दिया जाता है।यही कारण है कि परीक्षाओं में प्राप्त अंकों को नौकरियों का आधारस्तम्भ भी माना जाता है।कदाचित यही वह मूल कारण है जिसके चलते प्रश्नपत्रों का आउट होना, कक्ष निरीक्षकों द्वारा नकल कराया जाना,प्रबंधकों द्वारा ठेके पर नकल का जिम्मा लेना और शिक्षाधिकारियों को अकूत संम्पति बनाने का सरल उपाय प्राप्त होना औरकि दागी शिक्षण संस्थानों को परीक्षा केंद्र बनाना आदि आमबात हैं।जिनके चलते समाज मे जहां एकतरफ येनकेन अधिक नम्बर पाने की ललक तो दूसरी तरफ विद्यालयों की शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया क्षरण की ओर बढ़ती ही जा रही हैं।कहना ग़लत नहीं होगा कि शिक्षा जगत में वित्तविहीन विद्यालयों का उदय परीक्षाओं की सुचिता पर लगते हुए प्रश्नचिन्ह का मूल कारण और आज पहरे में हो रही परीक्षा के लिए नब्बे प्रतिशत जिम्मेदार कारक है।
प्रश्न जहाँतक सरकारी और सहायताप्राप्त शिक्षण संस्थानों की सुचिता का है तो यहां की स्थिति हरेक काल परिस्थिति में नकल विरोधी ही रही है।अलबत्ता यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में समाजवादी पार्टी के प्रत्येक कार्यकाल में सरकारी और सहायताप्राप्त शिक्षण संस्थान भी वित्तविहीनों से मिल रही टक्कर के विरोध में खूब जीभर कर बोल बोल कर कापियां लिखवाने में कत्तई पीछे नहीं रहे किन्तु समाजवादी सरकार के पतन के उपरांत ये संस्थान फिरसे पूर्ववत नकल विरोधी अभियानों के संरक्षक बन गए किन्तु वित्तविहीन विद्यालय तो जैसे न सुधरने की कसम खा लिए हैं।यही कारण है कि आज शिक्षकों और प्रधानाचार्यों पर न तो विभाग का ऐतबार है और न ही सरकार का।जिसके चलते केंद्रों पर युद्ध जैसी मुस्तैदी दिखने को मिल रही है।
ध्यातव्य है कि आजादी की प्राप्ति से आजतक परीक्षाओं के दौरान केंद्रों की तलाशी लेने वाले उड़ाका दल आज के दौर में भी बनाये जाते हैं किंतु इन दलों का जो रुआब कभी हुआ करता था,वैसा अब कहीं नहीं दिखता।इतना ही नहीं प्रधानाचार्यों पर अविश्वास के चलते उनकी निगरानी हेतु अतिरिक्त बाह्य केंद्र व्यवस्थापकों की तैनाती तक ही यह बात नहीं थमती।अब तो प्रत्येक केंद्र और सीसीटीवी कैमरे की नजर में होने वाली परीक्षाओं की निगरानी कक्ष निरीक्षक,आंतरिक सचल दल,केंद्र व्यवस्थापक,अतिरिक्त बाह्य केंद्र व्यवस्थापक,स्टेटिक मजिस्ट्रेट, सेक्टर मजिस्ट्रेट, जोनल मजिस्ट्रेट,डायट प्राचार्य,बेसिक शिक्षाधिकारी,जिला विद्यालय निरीक्षक,मुख्य विकास अधिकारी,अपर जिलाधिकारी सहित स्वयम जिलों के जिलाधिकारी व उनकी फ्लाइंग स्क्वाड टीमें खरती रहतीं हैं।फिर भी केंद्र चौबीस घण्टे पुलिस की अभिरक्षा और खुफिया तंत्र की निगरानी में तीन तीन लॉक वाली आलमारियों में रखे प्रश्नपत्रों को लेकर असहज से दिखते हैं।आखिर ऐसा और इतना अविश्वास क्यों है,यह इस समय का सबसे विचारणीय यक्ष प्रश्न है।
यदि गौर से देखा जाय तो परीक्षाओं की सुचिता पर लगने वाले सभी सवालों की मूल वजह अंकों के आधार पर बनने वाली मेरिट व्यवस्था है,जोकि सरकारी तंत्र की ही देन है।।मेरिट आधारित भर्तियों में जुगाड़ से नौकरी प्राप्त करने का सबसे सशक्त माध्यम नकल करके परीक्षाओं में ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करना ही होता है।कदाचित मैरिट आधारित भर्तियां ही परीक्षाओं की सुचिता को भंग करने की उत्तरदायी कारक हैं।जिनके घटक शिक्षकों से लेकर प्रधानाचार्य और शिक्षाधिकारी सब हैं।अतः परीक्षाओं की गरिमा बचाने हेतु नौकरियों को मेरिट की बजाय प्रतियोगिताओं के आधार पर करना सबसे श्रेयस्कर उपाय है।
परीक्षाओं की गरिमा बचाने हेतु विद्यालयों में पर्याप्त भौतिक व मानवीय संसाधनों की उपलब्धता सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी के साथ ही साथ जबावदेही भी होनी चाहिए।इतना ही नहीं अपितु परीक्षाओं के नामपर जिस तरह प्रशासन जांच की कमर कसता है उसीप्रकार पढाई के दौरान भी सतत निरीक्षण व पर्यवेक्षण होने चाहिए।प्रायः देखा गया है कि जिन विद्यालयों में अध्ययन अध्यापन बेहतर होता है वहाँ के विद्यार्थी अनुशासित होने के साथ-साथ कुशाग्र भी होते हैं।आज के परिवेश में 90 प्रतिशत विद्यालयों का परिवेश निम्नतम स्थिति में है,जोकि चिंतनीय है।
दिलचस्प बात तो यह है कि कुछ शैक्षिक संस्थान जब सख्ती के चलते नकल कराने में नाकामयाब रहते हैं तो परीक्षार्थियों से उत्तर पुस्तिकाओं में सौ,पचास,दो सौ और पांच सौ के नोट रखते तक को प्रोत्साहित करते हैं।जिससे विद्यार्थी अधिक अंक प्राप्त करने व मेरिट में आने की प्रत्याशा में कॉपियों में रुपये भी रखने लगे हैं।जहाँतक एक परीक्षक के तौर पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव है तो कानपुर नगर,कानपुर देहात,बिजनौर,फिरोजाबाद,इटावा,बदायूं,बुलंदशहर आदि जनपदों सहित प्रदेश के प्रायः सभी जिलों के कुछ विद्यालयों के परीक्षार्थी कॉपियों में रुपये रखने लगे हैं।जिनका भी थोड़ा बहुत प्रभाव उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन पर अवश्य पड़ता है।इससे शिक्षकों को जहां पावनापत्र व मूल्यांकन पारिश्रमिक की तत्काल भरपाई सी मुफ्त में मिलती दिखती है तो वहीं उनका नैतिक क्षरण भी बढ़ता है।हालांकि सभी शिक्षक उत्तर पुस्तिकाओं में पैसे होने की लालच नहीं करते किन्तु यदि वे कॉपियों में पैसे रखे जाने की लिखित शिकायत भी करें तो सरकारी तंत्र उन्हें इतना परेशान करता है कि सभी लोग चुपचाप पैसे जेब में डालकर मूल्यांकन करते रहते हैं।
गौरतलब है कि अबकी बार मूल्यांकन कार्य करने वाले परीक्षकों को केंद्रों के भीतर मोबाइल ले जाने पर पाबंदी लगाई गई है।जिसका शिक्षक संघ लगातार विरोध भी कर रहे हैं।अब प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है?क्या परीक्षक मोबाइल से नकल कराएगा या नम्बर बढ़ाएगा।अधिकारियों को स्मरण होना चाहिए कि आज मोबाइल सिर्फ बात करने का ही साधन नहीं अपितु एक कम्प्यूटर की तरह कैल्कुलेटर भी है।जिससे अंकों को जोड़ने आदि में सहूलियत होती है।अतः सरकार और शासन का मोबाइल बैन करना नितांत निंदनीय कृत्य है,जोकि शिक्षकों पर बढ़ते अविश्वास का द्योतक है औरकि कि अग्राह्य है।
अंततः यही कहना समीचीन और प्रासङ्गिक होगा कि अभिभावकों को भी अपने पाल्यों की सतत निगरानी करनी होगी,अध्यापकों को अपनी शिक्षण शैली सुधारते हुए पढ़ाना होगा और प्रधानाचार्यों तथा जिम्मेदार लोगों को पर्याप्त संसाधन मुहैया करवाना होगा,तभी परीक्षाओं पर बैठा पहरा हट सकता है,अन्यथा कोई अन्य मार्ग दृष्टिगोचर भी नहीं होंगे।